मंगलवार, 2 जुलाई 2013

समाज की संरचना

प्रत्येक मनुष्य एक ही प्रकार से उपासना नहीं कर सकता. इसलिए अपने यहाँ उपासना के भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय बहुत प्राचीन काल से चले आ रहे हैं. पेड़, पत्थर, भूत, पिशाच आदि की भी पूजा करो. इस विचार से पूजा के कई अमर्याद क्षेत्र उपलब्ध करा दिए गए. अपने से श्रेष्ठ, पवित्र, उच्च ऐसी कोई शक्ति है और उसकी पूजा करना चाहिए. इस भावना से अंततोगत्वा उच्चतम स्थान पर पहुँच जायेंगे, यह विचार इस व्यवस्था में निहित था. गीता में भगवान ने कहा है कि हर एक प्रकार से पूजा करने वाला अंततः मेरी ही पूजा करता है.  ऐसे प्रत्येक को अंतिम सुख तक पहुंचाने का बीड़ा स्वयं भगवान ने उठाया है. उपासना का जो मार्ग अपनी प्रकृति को, रूचि को और जीवन पद्धति को जाचे उसको वह स्वीकार करे- यही अपने यहाँ माना गया है. इसलिए अपने यहाँ झगडा नहीं हुआ.
अनुशासन के बारे में बोलते हुए मैंने कहां था कि अपने यहाँ  व्यक्ति की सम्पूर्ण स्वतंत्रता है और व्यक्ति के अहंकार को समष्टि के अहंकार में पूर्णतः विलीन कर देना है. इसी सामंजस्य से अटूट अनुशासन निर्माण होता है. धर्म क्षेत्र में भी यही धारणा दिखाई देती है.  उपासना का स्वातंत्र्य होते हुए भी सारे मार्ग उसी एकरूप अंतिम सत्य तक पहुँचने वाले हैं, ऐसा हम मानते हैं.  जैसे आकाश से भूमि पर गिरनेवाला पानी आखिर महासागर तक पहुँच जाता है. शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन, मीमांसक, नैयायिक सभी ने एक ही तत्त्व को ‘त्रैलोक्य नाथो हरिः’ करके विभिन्न शब्दों में गाया है-
यं शिवा समउपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटव: कर्तेति नैयायिका.
अर्हन्नित्यथ जैनशास्नारता: कर्मेति मीमांसका:
सोऽयं विदधातु वान्छित्फलम त्रैलोक्यनाथो हरि:
  ऐसा विविधतापूर्ण परन्तु समन्वित जीवन यहाँ था, श्रेष्ठतम सत्य की अनुभूति के चिरंजीव और पवित्र अधिष्ठान पर समन्वय उत्पन्न करना और अनेकविध गुणों  से परिपूर्ण होना, यह अपने राष्ट्रजीवन की एक अनोखी विशेषता है. इन गुणों में से अधिकाँश की अभिव्यक्ति अपने राष्ट्र में फिर से हो ऐसा यत्न करने की आवश्यकता है. यहाँ स्वामी विवेकानंद का एक उदगार का स्मरण आता है. उन्होंने कहा था की ‘मैं अपने समाज का जो आगामी चित्र देखता हूँ वह ‘ए मुस्लिम बॉडी विथ हिंदू सोल’... ऐसा है.’ अनेक लोगों को यह बात बड़ी विचित्र सी लगी. लेकिन उसका अर्थ यह है की मुसलमान समाज एक जीवन में जो एक सद्गुण है की वे अपने सब भेद भुलाकर अपने धर्म के नाम पर, हम उसको सद्गुण कहें या ना कहिएं, कंधे से कंधा मिलाकर सूत्रबद्ध खड़े हो जाते हैं. ऐसा स्वाभिमान लेकर सूत्रबद्ध होकर एकरूप बना हुआ समाज का विशाल शरीर, परन्तु अपने आध्यात्म्पूर्ण राष्ट्रजीवन की परिपूर्ण जागृति अंतःकरण में रखने वाला यह हिंदू समाज बनेगा ऐसा स्वामी जी ने कहा था. मैंने एक बार किसी से कहा था की नया मकान बनाने के लिए कई बार पुराना मकान तोडना पड़ता है. आज विकृति बनी हुई है जो समाज रचना है, उसको यहाँ से वहाँ तोड़ मरोड़ कर सारा ढेर लगा देंगे.उसमें से आगे चल कर जो विशुद्ध रूप से बनेगा सो बनेगा, आज तो सबका एकरस समूह बनाकर अपने विशुद्ध राष्ट्रीयत्व का सम्पूर्ण हृदय में रखकर, राष्ट्र के नित्य चैतन्यमय व सूत्रबद्ध सामर्थ्य की आकांक्षा अंतःकरण में जागृत रखने वाला समाज खड़ा करना है.

मंगलवार, 11 जून 2013

व्यक्ति और संगठन


संघ शिक्षा वर्ग, 
लाहौर, 1939


जिस उद्देश्य को लेकर संघ चला है उसके लिए आवश्यक है कि हम अपने-आप को नए रूप में ढालें. अपने-अपने क्षेत्र में लौटने के पश्चात विभिन्न प्रकार के दायित्व आपको संभालने पड़ेंगे. काम करते समय यह बात ध्यान रखनी है कि हम संगठन के अभिन्न अंग हैं. इसलिए सबके साथ मिलकर ही काम करना चाहिए. एक आदमी संगठन का सारा काम कर भी नहीं सकता.  यदि हमारे सहयोगियों के मन में हमारे प्रति ज़रा भी बुरा भाव आया तो वह संगठन और राष्ट्र दोनों के लिए घातक सिद्ध होगा. यदि परस्पर पूर्ण सहकार्य न रहा तब ऐसा ही कहना होगा कि हमने संगठन का प्राथमिक पाठ भी नहीं सीखा. हम सम्पूर्ण राष्ट्र को एक करना चाहते हैं परन्तु उसके पहले हमें अपने आप को एक करना होगा.

      यदि कोई स्वयंसेवक ऐसा हो जिसके स्वभाव में कोई दोष या कोई वैगुण्य हो तब उसे साथ लेकर तथा संभालकर काम करना होगा. दूसरे में दोष दिखाई दे तो यह सोचना चाहिए कि दुनिया में निर्दोष कौन है? एक-दूसरे के दोषों को समझ कर अपना काम करें यह आवश्यक है. अपना यह कर्त्तव्य हो जाता है कि अपने सहयोगियों के गुण संसार के सामने रखें. उस से गुण बढते हैं. केवल दोष देखना पितृहत्या के समान पाप है और अपने को दोष-रहित समझना अहंकार. उपदेशक वह हो सकता है जो पूर्णतया निर्दोष हो. जो अपने दोषों को छिपाकर उपदेश देता है उसके समान ढोंगी और मूर्ख कोई नहीं हैं..

     
      बंगाल का एक महापुरुष एक शराबी व पतित मनुष्य के साथ रहता था. फिर भी उस महापुरुष ने संसार को उसके दोष नहीं बताए. महापुरुष के साथ रहते-रहते और उसके प्रेमपूर्ण व्यवहार के कारण कुछ वर्षों के पश्चात उसका शराबीपन बिलकुल समाप्त हो गया. यदि वह महापुरुष उस शराबी व्यक्ति से कहते कि तू पतित है मुझसे दूर रह, तो उसकी शराब कभी नहीं छूटती. परन्तु शुद्ध प्रेम से उसके दोषों को दूर किया जा सका

      संगठन की कार्यवृद्धि करना, उसे अधिक मजबूती प्रदान करना तथा सहयोगियों में स्नेहपूर्ण सहकार्य हमारा उद्देश्य रहना चाहिए. एक-दुसरे के साथ पूर्ण सहयोग के साथ काम करते जाने से यश अवश्य मिलेगा.

सावरकर जी को श्रद्धांजलि (अंश)


हम जानते हैं कि अपने यहाँ ऐसा मानने वाले कई व्यक्ति हैं कि यहाँ कोई प्राचीन राष्ट्र नहीं था, केवल आदमियों कि भीड़ थी. अपना जो इतिहास है वह भी राजा कहलाने वाले लोगों के आपसी झगडों के दु:साहस से भरा हुआ है. एक मातृभूमि की धारणा, एक समाज का साक्षात्कार, एक राष्ट्रजीवन का ज्ञान यहाँ कभी नहीं रहा . इन लोगों का कहना है कि गत एक शताब्दी में जो राजनीतिक आंदोलन हुए उस से ही यहाँ राष्ट्र भावना का निर्माण हुआ.  संसार के विभिन्न राष्ट्रों को अपना स्वतंत्र जीवन चलाते देखकर यहाँ नए राष्ट्र की कल्पना सामने आयी. वह भी अंग्रेजों के शासन में रहने वाले सभी लोगों को मिलाकर.

      ये लोग यह विचार नहीं करते कि राष्ट्र कैसे बनता है? एक भूमि पर जन्म लेने से, एक परंपरा में संवर्धित होने से राष्ट्र बनता है, या केवल समान संकट, शत्रुत्व के कारण आये लोगों से राष्ट्र बनता है? इसका परिणाम यह हुआ कि राष्ट्र शब्द का सम्भ्रम्पूर्ण उपयोग करने लगे. राष्ट्र का सम्भ्रम्पूर्ण विचार लेकर संसार में हम अपने सब वैशिष्ट्यों के साथ  कैसे खड़े हो सकते हैं? अपने वैशिष्ट्यों का ज्ञान तथा स्वाभिमान न होने पर राष्ट्र का जो स्वरुप बनेगा, वह मिलावटी ही रहेगा.

      देश में चारों ओर फैले हुए भ्रामक विचार को हटाकर तथा शुद्ध राष्ट्र का चिंतन कर राष्ट्र की सेवा हेतु लोग कटिबद्ध हो सकें, इसकए लिए पूर्ण मौलिक विचार सबके सामने रखने का साहस स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी ने किया. अतीव साहसी प्रवृत्ति के होने के कारण संभवतः उन्हें इसमें कोई बड़ी बात ना लगी हो, किन्तु उस समय यह एक साहस ही था, राष्ट्र के विशुद्ध स्वरुप को सबके सामने रखने के दृढ संकल्प के साथ सम्पूर्ण भारत में घूमकर जिस प्रकार उन्होंने जिस हिंदू राष्ट्र का उद्घोष किया, वह आज यद्यपी परिपूर्ण रूप से सफल न दिखाई देता हो, परन्तु आगे चलकर अत्यंत अल्पकाल में ही उसकी सर्वत्र प्रबल घोषणा होती हुई और उसके अनुरूप प्रस्थापित हुआ जीवन हमें दिखाई देगा.

      संभ्रम होने पर सत्य ही असत्य और असत्य ही सत्य माना जाता है. इसी कारण आज लोग हिंदू-राष्ट्र के विचार को सत्य रूप में ग्रहण करते न दिखाई देते हों, परन्तु सत्य के अनुकूल विचारों का प्रवर्तन अत्यंत प्रभावी व तेजस्वी जीवन के प्रत्यक्ष स्वानुभावों से भरे प्रबल शब्दों में हो चुका है. अब वह रुकेगा नहीं. सत्य को कोई रोक नहीं सकता. उन्होंने जो कुछ कहा है वह सिद्ध होकर रहेगा. इस विषय में किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए. ऐसा संदेह भी मन में  लाने का कोई कारण नहीं है कि विपरीत विचारों के कोलाहल में शुद्ध विचारों को लेकर चलने वाला नेता अब इस संसार से चला गया है, अतः इस सत्य विचार प्रणाली को आगे बढ़ाकर उसे सत्य दृष्टि में कौन उतारेगा? ऐसी शंका का कारण नहीं, क्योंकि विशुद्ध विचारों का बल दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है और उस से एक महान शक्ति उत्पन्न होती है, जिसमें विरोधी विचार व विकार नष्ट हो जाते हैं. इसलिए यह बात अल्पकाल में अपने आप होगी, आज उसके चिह्न दिखाई देने लगे हैं.

      कई बार होता यह है कि मनुष्य सिद्धांत बोलता है, वह सिद्धांत सत्य भी होता है , परन्तु करें, क्या न करें? इस सोच में मनुष्य उस सिद्धांत के अनुकूल मार्ग से प्रयत्न नहीं करता. सावरकर जी के विषय में यह बात नहीं थी. वे केवल सिद्धांत कहकर नहीं रुके. उन्होंने यह विचार भी रखा कि कोई राष्ट्र खड़ा होता है, सुख, सम्मान पाता है, निर्भय रहता है तो केवल तत्त्व ज्ञान के आधार पर नहीं.

      जब प्रभु रामचंद्र का जन्म हुआ था, उस समय बड़े-बड़े ऋषि, तत्वज्ञानी क्या कम थे? वशिष्ठ जैसे महान ब्रह्मर्षि भी थे. उन सबके होते हुए भी राष्ट्र का रक्षण नहीं हुआ. यह सुस्पष्ट है कि उसका रक्षण कोदंडधारी रामचंद्र के कोदण्ड से ही हुआ.

      सावरकर जी के ८० वर्ष के प्रदीर्घ जीवन में, उसे आज की तुलना में प्रदीर्घ कहना ही चाहिए, प्रारम्भ से अंत तक सुख का एक क्षण भी नहीं था. उनकी तुलना में अपना मार्ग सुगम ही कहना चाहिए. हमें अनुकूलता बहुत हैं. अनेक प्रकार के दुःख भोगकर उनहोने हमारा मार्ग सुगम बनाया है. लेकिन सुगमता हो गयी इसलिए घर में चुपचाप बैठना अच्छा नहीं.सुगमता है तो आगे बढ़ें. आगे का मार्ग सुगम बनाएँ ताकि अगली पीढ़ी सुगमता से पद्क्रमण कर सके. इसके लिए हमें श्रद्धा से प्रयत्न करना होगा.


शुक्रवार, 24 मई 2013

श्री गुरूजी एवं विभिन्न मत पंथ

हमारे लचीले धर्म के स्वरूप की जो प्रथम नैसर्गिक विशेषता बाहरी व्यक्ति की दृष्टि में आती है, वह है पंथ और उपपंथों की आश्चर्यजनक विविधता यथा - शैव, वैष्णव, शाक्त, वैदिक, बौध्द, जैन, सिख, लिंगायत, आर्य समाज आदि। इन सभी उपासनाओं के महान आचार्यों एवं प्रवर्तकों ने उपासना के विविध रूपों की स्थापना, हमारे लोक-मस्तिष्क की विविध योग्यताओं की अनुकूलता का ध्यान रखकर ही की है। किन्तु अंतिम निष्कर्ष के रूप में सभी ने उस एक चरम सत्य को लक्ष्य के रूप में प्राप्त करने के लिए कहा है, जिसे ब्रह्म, आत्मा, विष्णु, शिव, ईश्वर अथवा महाशून्य तक के विविध नामों से पुकारा जाता है।' श्री गुरुजी और स्पष्ट करते हैं :- 'व्यक्ति को उपासना - स्वातंत्र्य का यह अधिकार इसलिए प्राप्त था कि प्रत्येक के लिए अपनी विशिष्ट आध्यात्मिक प्रकृति के अनुरूप आध्यात्मिक भोजन चुनने का अधिकार हो, किन्तु उपासना-मार्ग की विविधताओं का अर्थ समाज का विभाजन नहीं था। एक ही धर्म के ये सभी अविभाज्य अंग समाज की धारणा करते थे। हमारे समाज के इन सभी अंगों में वही जीवन-दर्शन, वही लक्ष्य, वही बाह्य स्थूल पर आंतरिक आस्था का प्रभुत्व, वही पुनर्जन्म में विश्वास, वही ब्रह्मचर्य, सत्य आदि कतिपय गुणों की पूजा, वही पवित्र संस्कार व्याप्त थे। ......वे शुध्द अद्वैत के संस्थापक श्री शंकराचार्य ही थे, जिन्होंने पंचायतन पूजा का निर्देश किया। ईश्वर के साक्षात्कार-हेतु विभिन्न पंथों के स्वरैक्य का यह कितना भव्य उदाहरण है! पंथ-विभेद के कारण हमारे देश में भूतकाल में कभी भी रक्तपात अथवा अपवित्र स्पर्धा नहीं हुई। इस आंतरिक एकत्व की गंभीर धारा का 'शिव महिम्न स्तोत्र' में अत्यंत सुंदर चित्रण हुआ है' :-
त्रयी सांख्यं योग: पशुपतिमतं वैष्णवमिति

प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमद: पथ्यमिति च।

रुचानां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥7॥

(जिस प्रकार सभी जलों का गंतव्य समुद्र होता है, वैसे ही हे ब्रह्मा सभी मनुष्यों के तुम एकमात्र लक्ष्य हो। मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार तुम्हारी पूजा के लिए भिन्न-भिन्न मार्गों का अनुसरण करते हैं-चाहे वह रास्ता सीधा हो या टेढ़ा - क्योंकि वेद, सांख्य, योग, शैव और वैष्णव आदि विभिन्न पंथों के विश्वासों में वही मार्ग श्रेष्ठ या पूर्ण है)। टैक्सास विश्वविद्यालय, आस्टिन द्वारा 1963 में श्री शंकरराव तत्ववादी (वर्तमान प्रभारी, विश्व विभाग, रा. स्व. संघ) को हिन्दू धर्म पर बोलने के लिए आमंत्रित किये जाने पर श्री गुरुजी हिन्दुत्व का उपर्युक्त स्वरूप ही प्रतिपादित करने-हेतु 29.08.1963 को उन्हें लिखते हैं- अपने धर्म का व्यापक स्वरूप, अद्वैत के आधार पर उसका सर्व-संग्राहकत्व, अन्य सर्व मतों का यथायोग्य आदर ...... आदि श्रेष्ठत्व का व्यवस्थित दिग्दर्शन कराने की ओर ध्यान देना हितकारी होगा। इस सम्बन्ध में मुझे एक उत्तम उदाहरण स्मरण आता है। वर्तमान श्रृंगेरी मठ (जो श्रीमत् आद्य शंकराचार्य के मठों में प्रमुख माना जाता है) के आचार्य के गुरु श्रीमत् चन्द्रशेखर भारती स्वामी के पूर्ववर्ती पीठाधिपति के निकट एक अमरीकी सज्जन गये तथा स्वामी जी से उन्हें हिन्दू धर्म में दीक्षित करने की प्रार्थना की। श्रीमत् आचार्य ने उनसे पूछा कि ईसाई मत में क्या कमी है, उस मत की उपासना क्यों नहीं करते? अमरीकी सज्जन ने कहा कि उस उपासना से मन:शांति नहीं मिली। तब स्वामी जी ने उनसे पूछा, क्या तुमने प्रामाणिकता से मन:पूर्वक, पूर्ण श्रध्दा से उपासना की है? उसने कुछ समय सोचकर उत्तर दिया, 'नहीं।' तब स्वामी जी ने उसे श्रध्दायुक्त अंत:करण से यीशु पर विश्वास रखकर प्रामाणिकता से उस मतानुसार प्रभुभक्ति करने का सुझाव देकर कहा कि यदि पर्याप्त दिनों तक इस प्रकार करते रहने पर भी तुम्हारा मन अशान्त तथा असंतुष्ट ही रहा, तो सिध्द होगा कि तुम्हारी पूर्वजन्म प्राप्त प्रकृति के लिए यह उपासना-पध्दति उपयुक्त नहीं है। वैसी स्थिति में मैं आश्वासन देता हूँ कि तुम्हारे पुन: आने पर मार्ग सुझाया जाएगा। इस उदाहरण का अर्थ स्पष्ट है कि जन्म से प्राप्त अपनी मूल निष्ठा को दृढ़ करना ही अभीष्ट है ......अपने धर्म की यह व्यापक संग्राहक दृष्टि है। स्वामी विवेकानंद जी ने भी यही विचार अपनी ओजस्वी वाणी से उद्धोषित किये हैं।...एक अन्य प्रसंग में एक सूफी संत द्वारा सभी पंथों में एकता के उपाय के रूप में सबको मुसलमान बन जाने का सुझाव देने पर श्री गुरुजी ने कहा- इस सूफी व्यक्ति को यह पता नहीं है कि इस दुनिया में एक सर्वसमावेशक तत्वज्ञान है, उसे हिन्दू कहो या न कहो, वह जागतिक तत्वज्ञान है, मानवता का तत्वज्ञान है। कोई राम कहेगा, कोई कृष्ण, कोई अल्लाह। भगवान् अंतत: एक ही है, यह कहने वाला केवल हिन्दू धर्म ही है। अनेक पंथ-भेद के लोग होने पर भी, ये सभी मार्ग एक ही परमेश्वर की ओर ले जाने वाले हैं, यह उदारता की भावना हिन्दुत्व के बिना संभव नहीं है। विचार नवनीत में 'हमारा जागतिक लक्ष्य' शीर्षक के अंतर्गत श्री गुरुजी बताते हैं:- 'इतिहास का यह कथन है कि केवल इसी देश में अति प्राचीन काल से विचारकों और दार्शनिकों, ऋषियों और मनीषियों की पीढ़ी के पश्चात् पीढ़ी मानव-प्रकृति के रहस्यों का उद्धाटन करने के लिए उठती रही। उन्होंने आत्मजगत् में गहराई तक गोता लगाया तथा उस महान एकरूपता के सिध्दांत की अनुभूति के शास्त्र को आविष्कृत किया, उसे परिपूर्ण बनाया। एक सम्पूर्ण राष्ट्र की तपस्या और त्याग तथा सैकड़ों शताब्दियों का अनुभव, संसार की आध्यात्मिक तृषा को शांत करने के लिए इस ज्ञान के अक्षय स्रोत के रूप में यहाँ वर्तमान है। दूसरी ओर, भारत के बाहर संसार ने आत्मा के इस शास्त्र का अध्ययन नहीं किया। आज तक अपनी इंद्रियों से बाह्य संसार के अध्ययन के अभ्यस्त हो, वे बहिर्मुखी बने हुए हैं। इंद्रियाँ बहिर्मुखी होने के कारण आंतरिक प्रकृति के दृश्य की ओर जाने में असमर्थ हैं। इसीलिए पाश्चात्य जगत् के लोग आत्मजगत् के ज्ञान एवं अनुभव से शून्य बने रहे, चाहे स्थूल जगत् के रहस्यों का कितना ही उद्धाटन क्यों न कर लिया हो। ... हमारे पूर्वज जिन्होंने इंद्रियों से परे विश्व में प्रवेश किया, अंदर देख सके और उस भासमान आंतरिक शक्ति की झाँकी प्राप्त कर सके।' आचार्य विनोबा भावे ने श्री गुरुजी को श्रध्दांजलि देते हुए कहा था - 'वे हर चीज का राष्ट्रीय दृष्टिकोण से विचार करते थे। उनका अध्यात्म में अटूट विश्वास था और सभी धर्मों के लिए उनके हृदय में आदर का भाव था। उनमें संकीर्णता लेशमात्र भी नहीं थी, वे हमेशा उच्च राष्ट्रीय विचारों से कार्य करते थे। श्री गोलवलकर को अध्यात्म से गहरा प्रेम था। वे इस्लाम, मसीही आदि अन्य धर्मो को बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे और यह अपेक्षा करते थे कि भारत में कोई अलग न रह जाए।'

24 जनवरी, 1966 को प्रयाग में विश्व हिन्दू परिषद के प्रथम अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में श्री गुरुजी ने स्पष्ट किया था - 'कभी-कभी लोग कहते हैं जो भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय चलते हैं, उनका विनाश करने के लिए आप चले हैं क्या? स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में हम कह सकते हैं कि ऐसा हमारा कोई संकल्प नहीं है। हम किसी से यह नहीं कहते कि तुम ईसाई मत बनो या इस्लाम के अनुसार कुरान शरीफ का अध्ययन करना या पाँच बार नमाज पढ़ना ठीक नहीं। हम इतना ही कहते हैं कि जो कुछ करना है ईमानदारी से करो, चारित्र्यसम्पन्न बनकर और मानवता पर प्रेम रख कर करो। सदाचरण आदि सर्वश्रेष्ठ सद्गुण संसार के यच्चयावत् मानव जाति के लिए हैं। उनका परिपालन करते हुए चलो। उनके नाम पर अपने स्वार्थ को पूर्ण मत करो, या व्यभिचार मत करो और विनाश मत करो, यही अपना आग्रह है।'
एक भेंटवार्ता (खण्ड 9, पृष्ठ122) के दौरान श्री गुरुजी साफगोई से कहते हैं, 'हिन्दू लोग चर्च और मस्जिद को पूजा का स्थान मानते हैं, इसलिए वे उनका सम्मान करते हैं। मुस्लिम और ईसाइयों की सोच वैसी नहीं है। वे मूर्तिपूजा को पाप समझते हैं। मुसलमान तो मूर्तिभंजन करने में गौरव का अनुभव करते हैं। हमारे देश में अगणित भव्य मूर्तियाँ और उजड़े हुए मंदिर उनकी इस मनोवृत्ति के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। हिन्दुओं की पूजा पध्दति का उन्हें ज्ञान न होना कोई महत्त्व की बात नहीं है। यदि वे मन्दिरों में आते हैं और अपनी भाषा में अपनी पध्दति से घुटने टेककर प्रार्थना करते हैं, तो हमें कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु, शपथबध्द दुश्मनी करने की मनोवृत्ति से मन्दिरों में प्रवेश करना, उन्हें अपमानित और भ्रष्ट करने के समान ही है।'

प्राचीन वैदिक काल से लेकर आज तक हमारी यही उदारता व सर्वसमावेशी परम्परा रही है। हमारे सभी अध्यात्मिक आचार्यों ने धर्म के इसी सर्वव्यापी अद्वितीय स्वरूप को ग्रहण किया है। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है-जितने दृष्टिकोण, उतने मार्ग (जेतो मतो, तेतो पथो)। व्यक्तियों की विविध वृत्तियों एवं रुचि के अनुसार अनेक पंथ और मत हो सकते हैं।
इनमें से अनेक पंथों एवं दर्शनों के निर्माण से एक अन्य लाभदायक उद्देश्य की भी सिध्दि हुई है। वे हमारे समाज की अखण्डता को बनाये रखने के लिए तथा उसकी रक्षा के लिए भी सहायक सिध्द हुए हैं। उदाहरण के लिए, सिख पंथ का उदय पंजाब में इस्लाम के प्रसार को रोकने के लिए हुआ। आगे चलकर समय की आवश्यकता को समझते हुए दशम् गुरु गोविंद सिंह ने अपने शिष्यों को सशस्त्र किया तथा उन्हें राष्ट्रीय योध्दाओं के एक सैन्यबल में परिवर्तित कर दिया। जब ईसाई धर्म-प्रचारक हमारे पश्चिमी समुद्र तट पर लोगों को अपने सम्प्रदाय में सम्मिलित करने के लिए अपने दयामय ईश्वर के नाम पर लोगों की अनुनय कर रहे थे, उस समय इस विदेशी विष को विफल करने के लिए हमारे धर्म की भक्ति के एक स्वरूप को लेकर श्री मधवाचार्य का उदय हुआ। स्वामी रामानुजाचार्य एवं संत बसवेश्वर के प्रयत्न भी समाज में प्रवेश कर रहे ऊँच-नीच के भेद को मिटाकर ईश्वर-भक्ति के सामान्य बंधन में सभी लोगों को बांधने के लक्ष्य से प्रेरित थे।

इस प्रकार की विभेदकारी प्रवृत्तियाँ, छोटे-छोटे परिमाण में अपने इस विशाल हिन्दू समाज के विभिन्न पंथ-उपपंथों में आजकल दिखाई पड़ रही है। इस सत्य को ओझल करने का प्रयत्न किया जा रहा है कि अपने इस विशाल देश में जैन, सिख, बौध्द, शैव, शाक्त, लिंगायत, वैष्णव इत्यादि विभिन्न जितने पंथ और मार्ग हैं, वे इसी विशाल हिन्दू समाज के अंग हैं।' इस व्यथा को और विस्तार देते हुए श्री गुरुजी ने 22 अक्टूबर, 1972 को विश्व हिन्दू परिषद, गुजरात के सिध्दपुर सम्मेलन में कहा- अपने देश के धार्मिक क्षेत्र में अनेक पंथ और सम्प्रदाय हैं और दुर्भाग्य यह है कि ऐसी कुछ विचित्र प्रथाएँ प्रचलित हैं कि इनमें आपसी सहयोग तो क्या, साधारण मिलन भी कठिन हो गया है। ...... इन सब में सामंजस्य निर्माण करने के उद्देश्य से विश्व हिन्दू परिषद का एक सम्मेलन आयोजित हुआ। उसमें पधारने के लिए निमंत्रण देने अपने कार्यकर्ता संप्रदायों के प्रमुखों के पास पहुँचे। एक स्थान पर जब ऐसा निमंत्रण दिया, तो उन्होंने उसे स्वीकार तो किया, परन्तु बोले, 'वहाँ बैठने का प्रबंध क्या है?' जब कार्यकर्ताओं ने उन्हें बैठने की व्यवस्था की जानकारी दी, तो उन्होंने कहा 'तब हम कैसे आ सकेंगे? यह इस मठ का? वह उस सम्प्रदाय का, वे सब क्या हमारे साथ बैठेंगे? वहाँ कैसी व्यवस्था कर रहे हैं? आखिर हमारी कुछ मर्यादाएँ हैं और उनमें श्रेष्ठत्व-कनिष्ठत्व है। इसलिए उनके अनुसार करो, तो हम आएंगे।' यह बात मेरे ध्यान में लाई गई। मैंने विचार किया कि यह तो बड़ी विचित्र बात है कि ऐसे व्यक्ति, जिन्होंने सर्वसंगपरित्याग करके भगवा वस्त्र धारण कर लिया है, वे भी मान-अपमान के क्षुद्र विचार से पीछा नहीं छुड़ा पाए। इसलिए उनसे जब मिलने का अवसर आया, तब मैंने उन्हें प्रणाम कर कहा - 'आप यह गेरुआ वस्त्र उतार दें, तो अपना कुर्ता देता हूँ, उसे पहन लीजिए, फिर ऐसी बातें करें। इस वस्त्र में तो आपकी यह बात सुनने के लिए मैं तैयार नहीं हूँ। मैंने तो कभी चतुर्थाश्रम को स्वीकार नहीं किया है। परन्तु मेरा जीवन तो साधुओं में बीता है। ऐसे महापुरुषों के सान्निध्य में बीता है, जिनके बारे में 'गुरुर्साक्षात् परब्रह्म' कह सकते हैं। उसके आधार पर मैं कहता हूँ कि आप इस वस्त्र को उतार डालें।' वे बहुत श्रेष्ठ पुरुष थे। वे नाराज नहीं हुए। एक क्षण मेरी ओर देखा और कहा - 'भाई! तेरा कहना ठीक है। हम लोग मठ और महन्तों की मर्यादाएँ सँभालने में ही लगे रहे। हमने अपना संन्यास-धर्म ही छोड़ दिया।' बाद में उस सम्मेलन में उन्होंने बड़े उत्साह से भाग लिया। यहाँ सब संप्रदायों के प्रमुखों ने एक मंच पर बैठकर प्रेम से वार्तालाप किया। किसी के मन में किसी के संप्रदाय के बारे में आक्षेप करने का विचार स्वप्न में भी नहीं आया। इस प्रकार एक राष्ट्रीयत्व का साक्षात्कार हम लोगों ने यहाँ पर किया। इससे भी अधिक दु:खद स्थिति का वर्णन श्री गुरुजी द्वारा विश्व हिन्दू परिषद पश्चिम उत्तर प्रदेश के हरिद्वार अधिवेशन में किया गया :- असम में शंकरदेव द्वारा प्रस्थापित कुछ मठ हैं, जिनको वहाँ पर सत्र बोलते हैं और प्रत्येक सत्र के प्रमुख को सत्राधिकारी कहा जाता है। ये मठ ब्रह्मपुत्र के अंदर एक बड़े द्वीप में है। परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि एक ही द्वीप में रहने वाले ये सब मठाधीश गत कुछ दो-तीन शताब्दियों में एक-दूसरे से मिले नहीं। द्वीप बड़ा है, यह बात सच है। परन्तु कुछ ऐसा बहुत दूर तो जाना नहीं था, कुछ ही मीलों के अंदर है। अपने एक महापुरुष के अनुयायी के रूप में सब रहते हैं। पर किसने किसको मिलने के लिए जाना? पहले अपने घर से कौन जाए? फिर वह बड़ा होगा कि मैं बड़ा होऊँगा? पता नहीं कौन-कौन से विचार मन में आए होंगे, भगवान जाने, मैं तो कह नहीं सकता, लेकिन वे गये नहीं। ईश्वर की कुछ ऐसी कृपा हुई कि विश्व हिन्दू परिषद के नाते जो काम हुआ, तो अपने प्रयाग के सम्मेलन (1966) में इनमें से एक बहुत प्रमुख सत्र के सत्राधिकारी आए। फिर उनकी सहायता से और उनकी प्रेरणा से सभी सत्राधिकारी, लगभग दो-ढाई सौ, डेढ़-दो साल के पहले असम में आयोजित एक कार्यक्रम में आए। उस समय सबसे बातचीत हुई। उन्हें बताया गया कि वे सब गिरि-क्षेत्रों में रहने वाले आपके अनुयायी हैं। जब उनसे यह पूछा गया कि उनके पास आप में से कोई जाता है क्या? 'कोई नहीं जाता'! क्यों नहीं जाता? उनका मार्गदर्शन कौन करेगा? समय-समय पर उनको भगवान के नाम से भजन-पूजन करना कौन सिखाएगा? उनके अन्त:करण की, अपने समाज की, धर्म की श्रध्दा को कौन पक्का रखेगा? अपना ही काम नहीं है क्या? तो अपने अगर शिष्य हैं, वंश परम्परा से चलते आ रहे हैं, अपने सत्र के तो उनको मार्गदर्शन करने का अपना जो स्वाभाविक अधिकार है, उसको विस्मृत करके हम चलें-यह ठीक होगा क्या? तो सबने कहा कि यह बात हमारी ओर से ठीक नहीं हुई और हम इस चीज को ठीक करेंगे। इस प्रकार उन्होंने उस कार्य को भी थोड़ी-बहुत मात्रा में शुरू किया है

वनवासी बंधुओं पर विचार

वन्य प्रान्तों में निवास करने वाले बंधुओं से मिलने पर अनुभव होता है कि ये लोग अनेक गुणों से परिपूर्ण होते हैं, यथा साहस, बुद्धिमत्ता,परिश्रम, शीलता, सत्य-निष्ठा, निश्छल आत्मीयता तथा सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक | हमें कुछ श्रेष्ठतम सैनिक इसी समाज ने दिए हैं | संभवतः केवल महाराणा प्रताप ही ऐसे व्यक्ति थे जो इनसे घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित कर इन्हें शेष समाज की बराबरी पर ले आये थे | उन अंचलों के वनवासी भील राजपूतों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर स्वदेश व स्वधर्म की रक्षा शौर्य पूर्वक पीढ़ी दर पीढ़ी करते रहे |

आजकल हमारे लोग इन लोगों के बीच केवल उनका शोषण करने के लिए जाते हैं | कुछ लोग ‘गो मांस भक्षी’ कहकर उनका तिरस्कार करते हैं और उनमें घुलने मिलने अथवा उन्हें हिन्दू मानने से इनकार करते हैं | परन्तु क्या हमने उनकी सभी परिस्थितियों का सहान्य्भूति पूर्वक विचार किया है?क्या किसी ने उनके पास जाकर उन्हें गाय के प्रति श्रद्धा के बारे में बताया है? ऐसे में दोष उनका नहीं है; हमारा है | दूसरी बात, उनके पास खाद्य सामग्री का अभाव भी तो हो सकता है | फलतः आवश्यकता के कारण उन्हें गो-मांस खाना पड़ गया होगा-फैशन या स्वाद के कारण नहीं | ऐसे में भी दोष हमारा ही है |

यह शेष हिन्दू समाज का कार्य है कि वह उनके बीच जाए, उन्हें शिक्षित करे और उनके सांस्कृतिक स्तर तथा जीवन स्थितियों में उत्कर्ष लाकर अपनी भूल का प्रायश्चित करें | यह कहना एकदम गलत है कि उनकी उपेक्षा की जडें हमारी समाज-रचना में है | प्राचीन काल में जब पंचायत प्रणाली समाज का मूलाधार थी, तब उसमें वनवासी जातियों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था | इसका उल्लेख श्रीराम कालीन राजनीतिक प्रणाली के वर्णन में मिलता है |

गत अनेक शताब्दियों से इन भाई-बहनों के प्रति स्नेह व संपर्क का अभाव ही उनकी वर्तमान उपेक्षा व विकत परिस्थितियों का प्रमुख कारण है | शेष समाज शिक्षा से लाभान्वित होता रहा; किन्तु इन्हें उससे वंचित रखा गया | उपयुक्त तकनीकी व अन्य प्रशिक्षणों के अभाव में ये वर्ग अपनी उत्पादन क्षमता एवं समृद्धि में पिछड़ते गए | आज हमें यही शिक्षा देश के सुदूरवर्ती वनांचलों में उन बंधों तक पहुंचानी है. जिनके लिए धर्म अंध-विश्वासपूर्ण कर्मकांडों का समुच्चय मात्र बन कर रह गया है अथवा जिन्हें सुदूरतम पर्वतों में रहने के कारण धर्म को समझने और तदुनुरूप जीवन यापन करने का अवसर ही प्राप्त नहीं हुआ | इस कार्य में विकत कठिनाइयों, कष्टों और विपत्तियों का सामना करना होगा | ऐसा अनुभव भी हो सकता है कि यह कृतज्ञता शून्य कार्य है | परन्तु हमें त्वरित फल अथवा किसी चमत्कार की अपेक्षा
किये बिना कठोर यथार्थ का सामना करते हुए सच्चे कर्मयोगी की भांति अनंत धैर्य के साथ कर्म पथ पर अग्रसर होना होगा |

कुछ कार्यकर्ता सभी बुराईयों के लिए दूसरों को उत्तरदायी ठहराकर प्रसन्न हो जाते हैं | कुछ कार्यकर्ता राजनीतिक विकृतियों तथा कुछ ईसाई, मुस्लिम आदि दुसरे सम्प्रदायों की आक्रामक गतिविधियों पर दोषारोपण करते हैं |परन्तु हमारे कार्यकर्ता को अपने मस्तिष्क की ऐसी प्रवृत्तियों से मुक्त रखकर अपने धर्म एवं बंधुओं के लिए शुद्धभाव से कार्य करना चाहिए | जिन्हें सहायता की आवश्यकता है उन्हें सहयोग देना और विपत्तियों से मुक्त करने हेतु सतत प्रयास करना चाहिए || इस सेवा कार्य में व्यक्ति-व्यक्ति में कोई भेद नहीं करना चाहिये- वह चाहे ईसाई हो या मुसलमान अथवा किसी अन्य सम्प्रदाय का अनुयायी | दैनिक आपदा, कष्ट अथवा दुर्भाग्य कोई भेदभाव नहीं करते और इनसे सभी सामान रूप से प्रभावित होते हैं |मानवता के कष्ट निवारण के कार्य में सेवा करते समय कृपा अथवा दया भाव से नहीं, बल्कि सभी के हृदयों में विद्यमान परमात्मा के प्रति समर्पित भक्तिमय अर्चना-भाव से कार्य करना चाहिए | हमारे धर्म की सच्ची शिक्षा यह है कि प्राणिमात्र के माता-पिता, बंधू सखा और सर्वस्व रुपी नारायण की सेवा में हमें अपना सब कुछ समर्पित कर देना चाहिए | हमारे कार्य, हमारे शाश्वत सनातन धर्म के यश एवं गौरव की श्री वृद्धि में योगदान करने में सफल हों, यही हमारी कामना हो |

इन लोगों तक अपने सांस्कृतिक विचार पहुँचाना केवल बराबरी के स्तर से ही संभव है, ऊंचे मचान पर बैठ कर नहीं | सबसे पहले उनको इसकी अनुभूति कराई जाए कि वे हमारे बराबर के एवं हमारे अपने बांध हैं | हम उन्हें अपने सच्चे प्रेम व स्नेह की अनुभूति करायें, तभी वे हमारे आह्वान का प्रत्य्त्तर देंगे और उसे ग्रहण कर सकेंगे |

वास्तव में पूर्वकाल में उनके साथ सांस्कृतिक सम्बन्ध बनाए रखने की व्यवस्थाएं रहती थीं | प्रत्येक क्षेत्र के गोस्वामी वहां की जनजातियों में घुलने मिलने, उन्हें शिक्षित करने तथा उनका सांस्कृतिक स्तर ऊंचा करने के विशिष्ट उद्देश्य के लिए ही हुआ करते थे | असं में ये लोग चैतन्य देव के अनुयायी आचार्य शंकर देव के पंथ माने जाते हैं | एक बार मैं उन लोगों से मिला, तो उन लोगों ने कहा-“ हम ऐसे असभ्य लोगों से कैसे मिल सकते हैं?” तथापि कुछ विचार विमर्श के पश्चात वे उनके साथ बैठने और भोजन करने को तैयार हो गए | जब जनजातीय नेता वहाँ आये, तो वे ये सब देखकर आश्चर्यचकित हो गए | वो ये कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि ऐसा भी हो सकता है | मैंने उनसे कहा कि हम सब भाई-भाई हैं | फिर दो जाति-प्रमुखों को अपने अगल-बगल बैठाया तो वे भाव-विह्वल हो गए |
समस्या यह है कि हम स्वयं ही उनसे दूर रहते हैं और शिकायत करते रहते हैं कि वे खराब हैं या ऐसे-वैसे हैं | बहुत दिनों तक ये लोग सरकारी अधिकारियों से भी संपर्क नहीं करना चाहते थे | जानते हैं क्यों? नागाओं का एक वर्ग अपने बालों का जूडा बनाकर उन्हें माथे पर सींग के सामान बांधता है | वे इसे सुन्दर व सम्मानसूचक मानते हैं | एक सरकारी अधिकारी को इन लोगों की देखभाल के लिए असं में नियुक्त किया गया | अधिकारी के आने पर जाति के मुखिया उनसे मिलने आये, परन्तु वह अधिकारी एकदम कल्पना-शून्य था | उसने एक नेता का जूडा पकड़ा और उसे झकझोरते हुए पूछा-“इसे कटवा कर एक आधुनिक व सभ्य व्यक्ति बनो |” वे सब हक्के-बक्के रह गए | एक अधिकारी सहज बुद्धि एवं कल्पनाशीलता के साथ उनसे व्यवहार क्यों नहीं कर सकता था? इसके बाद उन लोगों ने सरकारी अधिकारियों से मिलने की इच्छा कभी नहीं की |

सोमवार, 20 मई 2013

सम-सामयिक विषयों पर प्रश्नोत्तर

प्रश्न: आप इतिहास की पुस्तकें क्यूँ नहीं लिखते?
उत्तर: अलग पुस्तकें लिखने की क्या आवश्यकता है? बहुतेरी पुस्तकें लिखी गयी हैं | मैं तो पत्र के अतिरिक्त कुछ नहीं लिखता| जिन्हें पुस्तकें लिखना हो, लिखें |

प्रश्न: संघ के घटकों को मंत्रिपद देने के विषय में, पटेल जी ने सूचनाएं दी हैं, ऐसी वार्ता किसी वृत्तपत्र में आयी है| परसों सरदार जी से भेंट के समय आपकी उनसे कोई बातचीत हुई क्या?
उत्तर: इस प्रकार का कोई संभाषण नहीं हुआ | 'मिनिस्ट्री' के सम्बन्ध में हमसे कोई वार्ता नहीं हुई |

प्रश्न: श्रेष्ठ नेतृत्व कहीं दिखाई नहीं देता?
उत्तर: श्रेष्ठ नेतृत्व जनसमाज में से उत्पन्न होता है | यदि जनसमाज को उचित शिक्षण और ज्ञान दिया जाए, तो नवीन नेतृत्व स्वयं उभर आएगा| यह संभव है कि इस नवीन नेतृत्व के घटक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व वाले व्यक्ति ना हों, लेकिन यदि वे प्रामाणिक एवं सामान्य बुद्धिक्षमता वाले भी हुए तो देश कल्याण ही होगा |

प्रश्न: क्या आप यह अनुभव करते हैं कि हमारे राजनेता जिन्होंने देश का विभाजन स्वीकार किया, उनमें दूरदर्शिता का अभाव था?
उत्तर: मैं दो उदाहरण देता हूँ | पहला यह कि उनका विश्वास था और वो उपदेश भी देते थे कि मात्र हिन्दू-मुस्लिम एकता से ही स्वराज्य प्राप्त होगा किन्तु स्वराज तब आया जब उनके संबंध अतिशय बिगड़े हुए थे | दूसरा यह कि देश विभाजन के पश्चात पंडित नेहरु ने हवाई जहाज से उन स्थानों को देखा, जहां क्रूरता और अत्याचार का नंगा नाच हो रहा था | ऐसा कहा जाता है कि सब देखकर उन्होंने कहा था- " यदि मालूम होता कि देश विभाजन का परिणाम यह होगा तो मैं कभी भी उसकी स्वीकृति नहीं देता|" अब बताएं मैं कैसे कहूं कि वे दूरदर्शी थे जबकि निकट भविष्य में क्या हो सकता है इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते थे?

प्रश्न: विद्यमान राजनेताओं ने देश के लिए त्याग किया है | क्या आप इसे स्वीकार नहीं करेंगे?
उत्तर: परन्तु भूतकाल में किये हुए त्याग की कीमत वसूल करने की वर्तमान प्रवृत्ति का मैं अनुमोदन नहीं कर सकता|

प्रश्न: नेताओं द्वारा दिए गए उपदेश से सामान्यजन को प्रेरणा क्यूँ नहीं मिलती?
उत्तर: क्यूंकि लोग उनके व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन से भली-भांति परिचित हैं| वे जो कहते हैं उनसे उनका जीवन मेल नहीं खाता | केवल उन्हीं शब्दों का प्रभाव पड़ता है जिनका आधार जीवन के सतकर्म होते हैं |

प्रश्न: आज हर काम के लिए सरकार पर निर्भर रहने की प्रवृत्ति दिखाई देती है| क्या यह उचित है?
उत्तर: जीवन के हर क्षेत्र पर सरकार प्रभुता स्थापित करे यह अत्यंत अनुचित बात है | यह सोचना कि सरकार और राजनीति का जीवन में सबसे महत्वपूर्ण स्थान हैं स्वस्थ विचार नहीं है |

प्रश्न: क्या आप कई राजनीतिक दलों के होने को उचित समझते हैं?
उत्तर: उसमें हानि नहीं है, किन्तु सबका लक्ष्य एक होना चाहिए | सबको राष्ट्र के उत्थान के बारे में ही सोचना चाहिए | किन्तु आज अपने देश में तो सब एक दूसरे से शत्रु जैसा व्यवहार करते हैं |

प्रश्न: हमारे यहाँ के विद्वान् विदेशों में बसना पसंद करते हैं | क्या आप इसे उचित समझते हैं?
उत्तर: यहाँ के श्रेष्ठ बुद्धिमानों से मैं कहना चाहूँगा कि विदेशियों के अधीन काम करने की प्रवृत्ति को तिलांजलि दें और स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करें | हमारे देश में संशोधन की सामग्री का आधिक्य है| आविष्कार और खोज के लिए अनन्त अवसर उपलब्ध हैं | मैं तो अनुरोध करूँगा की पूरे विश्व को दिखा दें कि उनमें हर क्षेत्र में कुशलता और योग्यता है |

प्रश्न : जानकारी मिली है कि वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए हमारे यहाँ के बंदरों को अमरीका भेजा जा रहा है?
उत्तर: आदमी ने स्वयं को कितना पशु बना लिया है | अपनी कभी ना मिटने वाली भूख की तृप्ति के लिए ईश्वर निर्मित सृष्टि के शोषण को वह अपना अधिकार मानने लगा है | यह कितनी घृणित बात है | यह विश्व को कहाँ ले जा रहा है ? वह जीवन की पवित्रता को नष्ट कर रहा है | आज का दर्शन तो अणु बम का है | वह तो नरभक्षी वृत्ति है | आज आदमी-आदमी का शोषण करके जी रहा है |
ईश्वर निर्मित सम्पूर्ण सृष्टि अति पवित्र है | यदि असावधानी से भी एकाध चींटी को कष्ट हुआ तो मुझे अतीव दुःख होगा |

प्रश्न : अभी हाल के विधानसभा चुनाव के पूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी तिरुपति दर्शन को गयी थीं | उस विषय में वृत्त्पत्रों में टीका-टिप्पणी हुई थी | क्योंकि बी बी सी को दिए साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि 'उन्हें ईश्वर के बैसाखियों की आवश्यकता नहीं है' पर दूसरी तरफ तिरुपति के दर्शन को जाती हैं | पत्रकारों का कहना है कि यह तो धर्मप्रेमी हिन्दू जनता का वोट प्राप्त करने की चतुर चाल है | इसके आलावा दूसरा कोई हेतु हो ही नहीं सकता |
उत्तर :मैं सोचता हूँ की यह टिप्पणी अनुदार है | मुझे लगता है कि वे राजनीतिक स्वार्थ से नहीं बल्कि भक्ति से प्रेरित हो कर वहाँ गयी थीं | आखिर व्यक्ति के जीवन में ऐसे क्षण आते ही हैं जब वह धन, संपत्ति, सत्ता, लोकप्रियता आदि बातों से ऊपर उठ कर अंतरात्मा में झाँकने का प्रयास करता है | 

प्रश्न : सामाजिक दोषों को दूर करने के लिए उनके प्रति गुस्सा क्यूँ ना जगाया जाए?
उत्तर: जनकोप अल्पजीवी होता है | हम उसे इच्छानुसार नियंत्रित अथवा निर्देशित नहीं कर सकते | शेक्सपियर के नाटक जुलियस सीजर में एंटोनी का प्रसिद्ध कथन हमारे सामने है-" उपद्रव तू चल पड़ा है | जो तेरे में में आये तू वही कर |" शब्दों पर ध्यान दें, उसने यह नहीं कहा कि 'जो मैं चाहता हूँ वो कर|' उसने कहा कि 'जो तू चाहता है तू वो कर|'

प्रश्न: क्या अहिंसा सर्वोच्च सद्गुण नहीं है?
उत्तर: कभी-कभी अहिंसा की रक्षा करने के लिए ही हिंसा आवश्यक बन जाती है |

प्रश्न: व्यक्ति के समाज के साथ क्या सद्गुण होने चाहिए?
उत्तर: सरल शब्दों में कहा जाए तो समाज का सुख वही अपना सुख, उसका दुःख वही अपना दुःख, उसका यश तथा कीर्ति वही अपना यश व कीर्ति, उसका अपमान यानी अपना अपमान, यह अनुभूति होनी चाहिए |

प्रश्न: आदर्श के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए व्यक्ति को शक्ति कहाँ से प्राप्त होगी?
उत्तर: आदर्श के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भावना से | ईश्वर की अनुभूति प्राप्त करने में लगे दो योगियों की तीव्र तपस्या की कहानी है | नारद उसी रास्ते से भगवान् के धाम जा रहे थे | दोनों योगियों ने नारद जी से जानना चाह कि भगवान् की प्राप्ति के लिए अभी और कितनी तपस्या करनी पड़ेगी | वापस आते वक़्त नारद उन तपस्वियों से पुनः मिले | उन्होंने पहले योगी को बताया कि अभी उसे चार जन्मों तक तपस्या करनी पड़ेगी | नारद जी का उत्तर सुन कर वह निराश हो गया तथा विलाप करने लगा |
नारद जी ने दुसरे योगी को बताया कि उस इमली के वृक्ष में जितनी पत्तियाँ हैं,अभी उतने जन्म तक ईश्वरप्राप्ति के लिए तुम्हें राह देखनी होगी | वह ख़ुशी से नाचने लगा | यह देखकर नारद जी को आश्चर्य हुआ | कारण पूछने पर उसने बताया-" अब यह तो निश्चित हो गया कि ईश्वर प्राप्ति होगी ही | मेरे प्रयत्न निष्फल नहीं जायेंगे | जैसे ही उसने यह कहा, दैवी आकाशवाणी हुई-" अभी से तुम मुक्तात्मा हो |"
इस प्रकार कुछ लोग कठिनाइयों को सुअवसर में बदल सकते हैं | स्वामी विवेकानंद के शब्दों में-" ऐसे लोग रौद्र्पूजा करते हैं और संकटमय जीवन से प्रेम करते हैं| " सभी प्रकार के प्रलोभनों और विपत्तियों की आंधी से अविचलित रहते हुए, आग्रही वृत्ति से विजयी हो कर आगे बढ़ते ही रहते हैं|

डा. सैफुद्दीन जिलानी से साक्षात्कार- (भाग-2)


मूलतः ईरानी, परन्तु वर्षों से भारत के निवासी व पत्रकार डा. सैफुद्दीन जिलानी से 30 जनवरी १९७१ को कोलकाता में हुए वार्तालाप- (भाग-2)

डा. जिलानी- हिन्दू और मुसलामानों के बीच आपसी सद्भावना बहुत है, फिर भी समय-समय पर छोटे झगडे होते ही रहते हैं | इन झगड़ों को मिटाने के लिए आपकी राय में क्या किया जाए?

श्रीगुरुजी - आप अपने लेखों में इन झगड़ों का एक कारण हमेशा बताते हैं |वह कारण है गाय | दुर्भाग्य से अपने लोग और राजनीतिक नेता भी इस कारण का विचार नहीं करते | परिणामतः देश के बहुसंख्यकों में कटुता की भावना उत्पन्न होती है | मेरी समझ में नहीं आता कि गोहत्या के विषय में इतना आग्रह क्यों है? इसके लिए कोई कारण नहीं दीखता | इस्लाम धर्म गोहत्या का आदेश नहीं देता | पुराने ज़माने में हिन्दुओं को अपमानित करने का वह एक तरीका रहा होगा | अब वह क्यों चलना चाहिए?

  इसी प्रकार की अनेक छोटो-बड़ी बातें हैं | आपस के पर्वों त्योहारों में हम क्यों नहीं सम्मिलित न हों? होलिकोत्सव समाज के सभी स्तरों के लोगों को अत्यंत उल्लासयुक्त वातावरण में एकत्रित करने वाला त्यौहार है | मान लीजिये कि इस त्यौहार के समय किसी मुस्लिम बंधु पर कोई रंग उड़ा देता है, तो इतने मात्र से क्या कुरान की आज्ञाओं का उल्लंघन हो जाता है?इन बातों की ओर एक सामाजिक व्यवहार के रूप में देखा जाना चाहिए | मैं आप पर रंग छिद्कुं, आप मुझ पर छिडकें | हमारे लोग तो कितने ही वर्षों से मुहर्रम के सभी कार्यक्रमों में सभी सम्मिलित होते आ रहे हैं | इतना ही नहीं तो अजमेर के उर्स जैसे कितने ही उत्सवों में मुसलामानों के साथ हमारेलोग भी उत्साहपूर्वक सम्मिलित होते रहते हैं |किन्तु सत्यनारायण की पूजा में यदि कुछ मुसलमान बंधुओं को हम आमंत्रित करें तो क्या होगा? आपको विदित होगा कि द्रमुक के लोग अपने मंत्रिमंडल के एक मुस्लिम मंत्री को रामेश्वर के मंदिर ले गए | मंदिर के अधिकारियों, पुजारियों और अन्य लोगों ने उक्त मंत्री का यथोचित मान सम्मान किया, किन्तु उसे जब मंदिर का प्रसाद दिया गया, तो उसने उसे फ़ेंक दिया | प्रसाद ग्रहण करने मात्र से तो वह धर्मभ्रष्ट होने वाला नहीं था |इसी तरह की छोट-छोटी बातें हैं | अतः पारस्परिक आदर की भावना उत्पन्न की जानी चाहिए |
 हमें जो वृत्ति अभिप्रेत है, वह सहिष्णुता मात्र नहीं है | अन्य लोग जो कुछ करते हैं, उसे सहन करना सहिष्णुता है | परन्तु अन्य लोग जो कुछ करते हों, उसके प्रति आदर-भाव रखना सहिष्णुता से ऊंची बात है | इसी वृत्ति, इसी भावना को प्राधान्य दिया जाना चाहिए |हमें सबके विषय में आदर है | यही मार्ग मानवता के लिए हितकारक है | हमारा वाद सहिष्णुतावाद नहीं अपितु सम्मानवाद है | दूसरों के मत का आदर करना हम सीखें तो सहिष्णुता स्वयमेव चली आएगी |

डा. जिलानी- हिन्दू और मुसलमानों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के कार्य के लिए आगे आने की योग्यता किस्में है-राजनीतिक नेता में, शिक्षाशास्त्री में या धार्मिक नेता में?

श्रीगुरुजी- इस मामले में राजनीतिज्ञ का क्रम तो सबसे अंत में लगता है | धार्मिक नेताओं के विषय में भी यही कहना होगा | आज अपने देश में दोनों ही जातियों के धार्मिक नेता अत्यंत संकुचित मनोवृत्ति के हैं | इस काम के लिए नितांत अलग प्रकार के लोगों की आवश्यकता है | जो लोग धार्मिक तो हों,किन्तु राजनीतिक नेतागिरी ना करते हों और जिनके मन में समग्र राष्ट्र का विचार सदैव जागृत रहता हो | धर्म के अधिष्ठान के बिना कुछ संभव नहीं |धार्मिकता होनी ही चाहिए | रामकृष्ण मिशन को ही लें | यह आश्रम व्यापक और सर्वसमावेशक धर्मप्रचार का कार्य कर रहा है | अतः आज तो इसी दृष्टिकोण और वृत्ति की आवश्यकता है कि ईश्वरोपासनाविषयक विभिन्न श्रद्धाओं को नष्ट ना कर हम उनका आदर करें, उन्हें टिकाये रखें और वृद्धिंगत होने दें |
  राजनीतिक नेताओं के जो खेल चलते हैं, उन्ही से भेदभाव उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है | जातियों, पंथों पर तो वे जोर देते हैं, साथ ही भाषा, हिन्दू-मुस्लिम आदि भेद भी वे पैदा करते हैं | परिणामतः अपनी समस्याएं अधिकाधिक जटिल होती जा रही हैं | जाति-सम्बन्धी समस्या के मामले में तो राजनीतिक नेता ही वास्तविक खलनायक हैं | दुर्भाग्य से राजनीतिक नेता ही आज जनता का नेता बन बैठा है | जबकि चाहिए तो यह था कि सच्चे विद्वान, सुशील और ईश्वर के परमभक्त महापुरुष जनता के नेता बनते | परन्तु इस दृष्टि से आज उनका कोई स्थान ही नहीं है | इसके विपरीत नेतृत्व आज राजनीतिक नेताओं के हाथ में हैं |जिनके हाथों में नेतृत्व है, वे राजनीतिक पशु बन गए हैं | अतः हमें लोगों को जागृत करना चाहिए |
 दो दिन पूर्व ही मैंने प्रयाग में कहा कि कि लोगों को राजनीतिक नेताओं के पीछे नहीं जाना चाहिए, अपितु ऐसे सत्पुरुषों का अनुकरण करें, जो परमात्मा के चरणों में लीं है, जिनमें चारित्र्य है और जिनकी दृष्टि विशाल है |

डा. जिलानी- क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि जातीय सामंजस्य निर्माण का उत्तरदायित्व बहुसंख्यक समाज के रूप में हिन्दुओं पर है?

श्रीगुरुजी- हाँ ! मुझे यही लगता है, परन्तु कुछ कठिनाइयों का विचार किया जाना चाहिए |अप्नेगन सम्पूर्ण दोष हिन्दुओं पर लादकर मुसलामानों को दोषमुक्त कर देते हैं | इसके कारण जातीय उपद्रव करने के लिए अल्पसंख्यक समाज, यानी मुस्लिमों को सब प्रकार का प्रोत्साहन मिलता है | इसलिए हमारा कहना है कि इस मामले में दोनों को अपनी जिम्मेदारियों का पालन करना चाहिए |

डा. जिलानी- आपकी राय में सामंजस्य की दिशा में तत्काल कौन से कदम उठाये जाने चाहिए?

श्रीगुरुजी- हाँ मुझे यही लगता है, परन्तु कुछ कहना बहुत ही कठिन है, फिर भी सोचा जा सकता है | व्यापक पैमाने पर धर्म की याठार्थ शिक्षा देना एक उपाय हो सकता है | राजनीतिक नेताओं द्वारा समर्थित आज जैसी धर्महीन शिक्षा नहीं, अपितु सच्चे अर्थों में धर्म-शिक्षा लोगों को इस्लाम व हिन्दू धर्म का ज्ञान कराये |सभी धर्म मनुष्य को महान, पवित्र और मंगलमय बनने की शिक्षा देते हैं | यह लोगों को सिखाया जाए |
 दूसरा उपाय यह हो सकता है कि जैसा हमारा इतिहास है, वैसा ही हम पढ़ाएं | आज जो इतिहास पढाया जाता है, वह विकृत रूप में पढाया जाता है | मुस्लिमों ने इस देश पर आक्रमण किया हो तो वह हम स्पष्ट रूप से बताएं, परन्तु साथ ही यह भी बताएं की वह आक्रमण भूतकालीन है और विदेशियों ने किया है | मुसलमान यह कहें कि वे इस देश के मुसलमान हैं और ये आक्रमण उनकी विरासत नहीं है | परन्तु जो सही है, उसे पढ़ाने के स्थान पर जो असत्य है, विकृत है, यही आज पढाया जाता है | सत्य बहुत दिनों तक दबाकर नहीं रखा जा सकता | अंततः वह सामने आता है और तब उस से लोगों में दुर्भावना निर्माण होती है | इसलिए मैं कहता हूँ कि इतिहास जैसा है, वैसा ही पढाया जाए | अफज़ल खान को शिवाजी ने मारा है, तो वैसा ही बताओ | कहो कि एक विदेशी आक्रामक और एक राष्ट्रीय नेता के तनावपूर्ण संबंधों के कारण यह घटना हुई | यह भी बताएं कि हम सब एक ही राष्ट्र हैं, इसलिए हमारी परंपरा अफज़ल खान की नहीं है | परन्तु यह कहने की हिम्मत कोई नहीं करता | इतिहास के विकृतीकरण को मैं अनेक बार धिक्कार चूका हूँ और आज भी उसे धिक्कारता हूँ |

डा. जिलानी-भारतीयकरण पर बहुत चर्चा हुई, भ्रम भी बहुत निर्माण हुए | क्या आप बता सकेंगे कि ये  भ्रम कैसे दूर किये जा सकेंगे?

श्रीगुरुजी- भारतीयकरण की घोषणा जनसंघ द्वारा की गयी है, किन्तु इस मामले में संभ्रम क्यों होना चाहिए? भारतीयकरण का अर्थ सबको हिन्दू बनाना तो है नहीं |
 हम सभी को यह सत्य समझ लेना चाहिए कि हम इसी भूमि के पुत्र हैं|| अतः इस विषय में अपनी निष्ठा अविचल रहना अनिवार्य है | हम सब एक ही मानवसमूह के अंग हैं, हम सबके पूर्वज एक ही हैं, इसलिए हम सबकी आकांक्षाएं भी एक सामान हैं- इसे समझना ही सही अर्थों में भारतीयकरण है |
  भारतीयकरण का यह अर्थ नहीं कि कोई अपनी पूजा पाद्धाती त्याग दे | यह बात हमने कभी नहीं कही और कभी कहेंगे भी नहीं | हमारी तो यह मान्यता है कि उपासना की एक ही पद्धति सम्पूर्ण मानव जाति के लिए सुविधाजनक नहीं |


डा. जिलानी- आपकी बात सही है | बिलकुल सौ फ़ीसदी सही है | अतः इस स्पष्टीकरण के लिए मैं आपका बहुत ही कृतज्ञ हूँ |

श्रीगुरुजी- फिर भी मुझे संदेह है कि सब बातें मैं स्पष्ट कर सका हूँ या नहीं |

डा. जिलानी- कोई बात नहीं | आपने अपनी ओर से बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट किया है | कोई भी विचारशील और भला आदमी आपसे असहमत नहीं होगा | क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि अपने देश का जातीय बेसुरापन समाप्त करने का उपाय ढूँढने में आपको सहयोग दे सकें, ऐसे मुस्लिम नेताओं की और आपकी बैठक आयोजित करने का अब समय आ गया है? ऐसे नेताओं से भेंट करना क्या आप पसंद करेंगे?

श्रीगुरुजी- केवल पसंद ही नहीं करूँगा, ऐसी भेंट का मैं स्वागत करूँगा |

शनिवार, 18 मई 2013

सैफुद्दीन जिलानी से साक्षात्कार (भाग 1)




मूलतः ईरानी, परन्तु वर्षों से भारत के निवासी व पत्रकार डा. सैफुद्दीन जिलानी से 30 जनवरी १९७१ को कोलकाता में हुए वार्तालाप- (भाग-1)

डा.जिलानी- देश के समक्ष आज जो संकट मुंह बाए खड़े हैं, उन्हें देखते हे हिन्दू-मुस्लिम समस्या का कोई निश्चित हल ढूंढना, क्या आपको आवश्यक प्रतीत नहीं होता?

श्रीगुरुजी- देश का विचार करते समय मैं हिन्दू और मुसलमान-इस रूप में विचार नहीं करता परन्तु इस प्रश्न की ओर लोग इस दृष्टि से देखते हैं | आजकल सभी लोग राजनीतिक दृष्टिकोण से ही विचार करते दिखाई देते हैं | हर कोई राजनीतिक स्थिति का लाभ उठा कर व्यक्तिगत अथवा जातिगत स्वार्थ सिद्ध करने में लिप्त है |इस परिस्थिति पर मात करने में लिप्त है | इस परिस्थिति की ओर देशहित की ही दृष्टि से देखना | उस स्थिति में वर्तमान सभी समस्याएं देखते ही देखते हल हो जायेंगे |
  हाल ही में मैं दिल्ली गया था | उस समय अनेक लोग मुझसे मिलने आये थे | उनमें भारतीय क्रान्ति दल, संगठन कांग्रेस आदि दलों के लोग भी थे | संघ को हमने प्रत्यक्ष राजनीति से अलग रखा है, परन्तु मेरे कुछ पुराने मित्र जनसंघ में होने के कारण कुछ मामलों में मैं मध्यस्थता करूँ इस हेतु से वे मुझे मिलने आये थे | उनसे मैंने एक सामान्य सा प्रश्न पूछा- 'आप लोग हमेशा अपने दल का और आपके दल के हाथ में सत्ता किस तरह आये, इसी का विचार किया करते हैं |परन्तु दलीय निष्ठा व दलीय हितों का विचार करते समय क्या आप सम्पूर्ण देश के हितों का कभी विचार करते हैं? " इस सामान्य से प्रश्न का 'हाँ' में उत्तर देने सामने कोई नहीं आया | समग्र देश के हितों का विचार सचमुच उनके सामने होता, तो वे वैसा साफ़-साफ़ कह सकते थे, किन्तु उन्होंने नहीं कहा | इसका अर्थ स्पष्ट है कि कोई भी दल समग्र देश का विचार नहीं करता | मैं समग्र देश का विचार करता हूँ | इसलिए मैं हिन्दुओं के लिए कार्य करता हूँ, परन्तु कल यदि हिन्दू भी देश के हितों के विरुद्ध जाने लगे तब उनमें मेरी कौन सी रूचि रह जायेगी?
  रही बात मुसलामानों की तो मैं यह समझ सकता हूँ कि अन्य लोगों की तरह उनकी भी न्यायोचित मांगें पूरी की जानी चाहिए, परन्तु जब चाहे, तब विभिन्न सहूलियटन और विशेषाधिकारों की मांगें करते रहना कतई न्यायोचित नहीं कहा जा सकता | मैंने सुना है कि प्रत्येक प्रदेश में एक छोटे पाकिस्तान की मांग उठायी गयी है | जैसा कि प्रकाशित हुआ है, एक मुस्लिम संगठन के अध्यक्ष ने तो लाल किले पर अपना झंडा फहराने की योजना की बात की है | उन महाशय ने अब तक इसका खंडन भी नहीं किया है | ऐसी बातों से समग्र देश का विचार करने वालों का संतप्त होना स्वाभाविक है |
  उर्दू के आग्रह का विचार करें | पचास वर्षों के पूर्व तक विभिन्न प्रान्तों के मुसलमान अपने-अपने प्रान्तों की भाषाएँ बोला करते थे तथा उन्हीं भाषाओं में शिक्षा ग्रहण किया करते थे | उन्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि उनके धर्म की कोई अलग भाषा है |
 उर्दू मुसलामानों की धर्म-भाषा नहीं है | मुगलों के समय में एक संकर भाषा के रूप में वह उत्पन्न हुई | इस्लाम के साथ उसका रत्ती भर भी सम्बन्ध नहीं है | पवित्र कुरान अरबी में लिखा है | अतः मुसलामानों की अगर कोई धर्म-भाषा हो, तो वह अरबी ही होगी | ऐसा होते हुए भी आज उर्दू का इतना आग्रह क्यूँ? इसका कारण यह है कि इस भाषा के सहार वे मुसलामानों को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करना चाहते हैं | यह संभावना ही नहीं तो एक निश्चित तथ्य है कि इस तरह की राजनीतिक शक्ति देशहित के विरुद्ध ही जायेगी |
  कुछ मुसलामान कहते हैं कि उनका राष्ट्र-पुरुष रुस्तम है | सच पूछा जाए तो मुसलामानों का रुस्तम से क्या सम्बन्ध? रुस्तम तो इस्लाम के उदय के पूर्व ही हुआ था | वह कैसे उनका राष्ट्रपुरुष हो सकता है? और फिर, प्रभु रामचंद्र जी क्यों नहीं हो सकते? मैं पूछता हूँ कि आप यह इतिहास स्वीकार क्यों नहीं करते?
  पाकिस्तान ने पाणिनि की 5 हजारवीं जयंती मनाई | इसका कारण यह है कि जो हिस्सा पाकिस्तान के नाम से पहचाना जाता है, वहीँ पाणिनि का जन्म हुआ था | यदि पाकिस्तान के लोग गर्व के साथ यह कह सकते हैं कि पाणिनि उनके पूर्वजों में से एक है, तो फिर भारत के मुसलमान (मैं उन्हें हिन्दू मुसलमान कहता हूँ) पाणिनि, व्यास, वाल्मीकि, राम. कृष्ण आदि को अभिमानपूर्वक अपने महान पूर्वज क्यों नहीं मानते?
 हिन्दुओं में ऐसे अनेक लोग हैं जो राम, कृष्ण आदि को ईश्वर का अवतार नहीं मानते | फिर भी वे उन्हें महापुरुष तो मानते ही हैं, अनुकरणीय मानते हैं | इसलिए मुसलमान भी यदि उन्हें अवतारी पुरुष न मानें, तो कुछ बिगाडनेवाला नहीं , परन्तु क्या उन्हें राष्ट्रपुरुष नहीं माना जाना चाहिए?
 हमारे धर्म और तत्वज्ञान की शिक्षा के अनुसार हिन्दू और मुसलमान सामान ही हैं | ऐसी बात नहीं कि ईश्वरीय सत्य का साक्षात्कार के वाल हिन्दू ही कर सकता है | अपने-अपने धर्म-मत के अनुसार कोई भी साक्षात्कार कर सकता है |
  श्रृंगेरी मैथ के शंकराचार्य का ही उदाहरण लें | यह उदाहरण, वर्तमान शंकराचार्य के गुरु का है | एक अमरीकी व्यक्ति उनके पास आया और उसने प्रार्थना कि की उसे हिन्दू बना लिया जाए | इस पर शंकराचार्य जी ने उस से पूछा-" वह हिन्दू क्यों बनना चाहता है?" उसने उत्तर दिया कि ईसाई धर्म से उसे शान्ति प्राप्त नहीं हुई है | आध्यात्मिक तृष्णा भी अतृप्त है |
 इस पर शंकराचार्य जी ने उस से पूछा-"क्या तुमने सचमुच पहले ईसाई धर्म का प्रामाणिकतापूर्वक पालन किया है? तुम यदि इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके होगे कि ईसाई धर्म का पालन करने के बाद भी तुम्हें शान्ति नहीं मिली, तो मेरे पास अवश्य आओ |"
  हमारा दृष्टिकोण इस तरह का है | हमारा धर्म, धर्म परिवर्त न करानेवाला धर्म है |धर्मांतरण तो प्रायः राजनीतिक अथवा अन्य हेतु से कराये जाते हैं || इस तरह का धर्म परिवर्तन हमें स्वीकार नहीं है | हम कहते हैं- 'यह सत्य है | तुम्हें जंचता है तो स्वीकारो, अन्यथा छोड़ दो |'
  दक्षिण की यात्रा के दौरान मदुरै में कुछ लोग मुझसे मिलने के लिए आये | मुस्लिम समस्या पर वो मुझसे चर्चा कर मुसलामानों के विषय में मेरा दृष्टिकोण चाहते थे | मैंने उनसे कहा -" आप लोग मुझसे मिलने आये, मुझे बड़ा आनंद हुआ | हमें यह बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि हम सब पूर्वज एक ही हैं | हम सब उनके वंशज हैं | आप अपने-अपने धर्मों का प्रामाणिकता से पालन करें, परन्तु राष्ट के मामले में हम सबको एक रहना चाहिए | राष्ट्रहित के लिए बाधक सिद्ध होने वाले अधिकारों और सहूलियतों की मांग बंद होनी चाहिए | हम हिन्दू हैं, इसलिए हम विशेष सहूलियतों या अधिकारों की कभी बात नहीं करते | ऐसी स्थिति में कुछ लोग यदि कहने लगें कि 'हमें अलग होना है', 'हमें अलग प्रदेश चाहिए' तो यह कतई सहन नहीं होअग |"
  ऐसी बात नहीं कि यह प्रश्न केवल हिन्दू और मुसलामानों के बीच ही हो | यह समस्या तो हिन्दुओं के बीच भी है | जैसे हिन्दू-समाज में जैन लोग हैं, तथाकथित अनुसूचित जातियां हैं | अनुसूचित जातियों में कुछ लोगों ने डा. आंबेडकर के अनुयायी बनकर बौद्ध धर्म ग्रहण किया | अब वे कहते हैं -'हम अलग हैं' | अपने देश में अल्पसंख्यकों को कुछ विशेष राजनीतिक अधिकार प्राप्त हैं | इसलिए प्रत्येक गुट स्वयं को अल्पसंख्यक बताने का प्रयास कर रहा है तथा उसके आधार पर कुछ विशेष अधिकार और सहूलियतें मांग रहा है | इस से अपने देश के अनेक टुकड़े हो जाएंगे और सर्वनाश होगा | हम उसी दिशा में अब्ध रहे हैं | कुछ जैन मुनि मुझे मिले| उन्होंने कहा 'हम हिन्दू नहीं हैं| अगली जनगणना में हम स्वयं को जैन के नाम से दर्ज कराएंगे |' मैंने कहा -" आप आत्मघाती सपने देख रहे हैं |" अल्गाव का अर्थ है देश का विभाजन और विभाजन का परिणाम होगा आत्मघात |
 जब लोग प्रत्येक बात का विचार राजनैतिक स्वार्थ की दृष्टि से करने लगते हैं, तब अनेक भीषण समस्याएं उत्पन्न होती हैं, किन्तु इस स्वार्थ को अलग रखते ही अपना देश एकसंघ बन सकता है | फिर हम सम्पूर्ण विश्व की चुनौती का सामना कर सकते हैं |


डा. जिलानी- भौतिकवाद और विशेषतः साम्यवाद से अपने देश के लिए खतरा पैदा हो गया है | हिन्दू और मुसलमान दोनों ही ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास रखते हैं | क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि दोनों मिलकर इस संकट का मुकाबला कर सकते हैं?

श्रीगुरुजी- यही प्रश्न कश्मीर के एक सज्जन ने मुझसे किया था | उनका नाम संभवतः नाजिर अली है | अलीगढ में मेरे एक मित्र अधिवक्ता श्री मिश्रीलाल के निवास स्थान पर वे मिले थे | उन्होंने कहा- 'नास्तिकता और साम्यवाद हम सभी पर अतिक्रमण हेतु प्रयत्नशील है | अतः ईश्वर पर विश्वास रखनेवाले हम सभी को चाहिए कि हम सामूहिक रूप से इस खतरे का मुकाबला करें |
  मैंने कहा- "मैं आपसे सहमत हूँ|" परन्तु कठिनाई यह है कि हम सब ने मानो ईश्वर की प्रतिमा के टुकड़े-टुकड़े कर डाले हैं और हरेक ने एक-एक टुकड़ा उठा लिया है | आप ईश्वर की ओर अलग दृष्टि से देखते हैं , ईसाई अलग दृष्टि से देखते हैं | बौद्ध लोग तो कहते हैं कि ईश्वर तो है ही नहीं; जो कुछ है, वह निर्वाण ही है | जैन लोग कहते हैं कि सब कुछ शून्याकार ही है | हम में से अनेक लोग राम, कृष्ण, शिव आदि के रूप में ईश्वर की उपासना करते हैं | इन सबको आप यह किस तरह कह सकेंगे कि एक ही सर्वमान्य ईश्वर को माना जाए | इसके लिए आपके पास क्या कोई उपाय है?" मेरी यह धारणा थी कि सूफी ईश्वरवादी और विचारशील हा करते हैं, परन्तु उस सूफी सज्जन ने जो उत्तर दिया, उसे सुनकर आप आश्चर्यचकित हो जायेंगे | उन्होंने यह कहा-'तो फिर आप सब लोग इस्लाम क्यों नहीं स्वीकार कर लेते?'
  मैंने कहा-" फिर तो कुछ लोग कहेंगे कि ईसाई क्यों नहीं बन जाते? मेरे धर्म के प्रति मुझे निष्ठा है, इसलिए मैं यदि आपसे कहूं कि आप हिन्दू क्यों नहीं बन जाते, तब? यानी समस्या जैसी की वैसी रह गयी | वह कभी हल नहीं होगी |
  इस पर उन्होंने मुझसे पूछा कि आपकी क्या राय है? मैंने बताया कि सभी अपने-अपने धर्म का पालन करें | एक ऐसा सर्वसारभूत तत्वज्ञान है, जो केवल हिन्दुओं का या केवल मुसलामानों का ही हो, ऐसी बात नहीं है | इस तत्वज्ञान को आप अद्वैत कहें या कुछ और | यह तत्वज्ञान कहता है कि एक एकमेवाद्वितीया शक्ति है, वही सत्य है, वही आनंद है, वही सृजन, रक्षण और संहार करती है | अपनी ईश्वर की कल्पना उसी सत्य का सीमित अंश है | अंतिम सत्य का मूलभूत रूप किसी धर्मविशेष का नहीं अपितु सर्वमान्य है | यही रूप हम सबको एकत्रित कर सकता है | सभी धर्म वस्तुतः ईश्वर की ओर ही उन्मुख करते हैं | अतः यह सत्य आप क्यों स्वीकार नहीं करते कि मुसलमानों, ईसाईयों और हिन्दुओं का परमात्मा एक ही है और हम सब उसके भक्त हैं | एक सूफी के रूप में तो आपको इसे स्वीकार करना चाहिए |
  इसपर उनके पास कोई उत्तर नहीं था | दुर्भाग्य से हमारी बातचीत यहीं समाप्त हो गयी |

(क्रमशः)

समय की चुनौती




कोई भी व्यवस्था जो स्वाभाविक असमानता को ऊपरी समानता के आधार पर पूर्णरूपेण दूर करने का प्रयत्न करती है, निश्चय ही असफल होगी | पाश्चात्य देशों में इतनी प्रगति की अवस्था होते हुए भी जनतंत्र अंत में कुछ ऐसे ही लोगों का शासन है जो राजनीति की कला के पूर्ण ज्ञाता तथा सामान्यजन को अपने पक्ष में लाने का सामर्थ्य रखते हैं | जनतंत्र की वह कल्पना कि राज्य 'जनता द्वारा' और 'जनता का' है जिसका अर्थ होता है कि राजनीतिक प्रबंध में सभी सामान भागी हैं, व्यवहार में बहत बड़ी सीमा तक, एक कल्पित कथा मात्र है |

 कम्युनिज्म भी एकता की अपनी घोषित कल्पनाओं में से किसी एक को भी साकार करने में पूर्ण असफल हो चुका है | उसने कल्पना की थी कि श्रमिक का एकाधिपत्य स्थापित हो जाने पर सभी के भोजन तथा जीवन की अन्य आवश्यकताएं पूरी हो जायेंगी | उस स्थिति में परस्पर संघर्ष के लिए कोई स्थान न रहेगा और इसलिए केंद्रीय प्रभुत्व की आवश्यकता भी नहीं रहेगी | इस  प्रकार राज्य लुप्त हो जाएगा और एक शासनरहित समाज का उदय होगा | कम्युनिज्म के अनुसार यही एकता की उच्चतम अवस्था है, जिसकी कि मनुष्य कल्पना कर सकता है |

  किन्तु कम्युनिज्म, जैसा कि यह भौतिकवाद पर आधारित है, स्पष्ट नहीं कह सकता कि वह आदर्श अवस्था कैसे अस्तित्व में आ सकती है? यदि मनुष्य केवल एक पशु है अर्थात् एक भौतिक जीव मात्र, तो वह एक-दुसरे का भक्षण केवल इसीलिए नहीं करता कि उसे जो कोई भी अधिष्ठित सत्ता है उसका भय है | किन्तु जब वह शक्ति अथवा प्रभुत्व नहीं रहेगा तो बिना कलह के वे क्यों रहेंगे? पशु के रूप में मनुष्य मनोवेगों का शिकार है, और मनोवेगों को जब तुष्ट किया जाता है तो वे और भी अधिक तीव्र हो जाते हैं | इस प्रकार का असंतुष्ट मनुष्य दूसरों के साथ प्रेम एवं शांतिपूर्वक कैसे रहेगा? और इस बात का भी क्या भरोसा है कि अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने पर भी मनुष्य , जो कि पशुओं अपेक्षा अधिक चतुर है, न खाओ न खाने दो की नीति (Dog in the manager policy) का अनुसरण नहीं करेगा? इसलिए यदि हम मान भी लें कि समानता स्थापित हो गयी तो वह पुनः असमानता की ओर ले जायेगी | इस प्रकार एक अन्य खुनी क्रांति आवश्यक हो जायेगी | इसका अर्थ है कि हिंसात्मक विप्लव तथा कलह कम्युनिज्म के सिद्धांत की कोण शिलाएं हैं | सदैव क्रान्ति के नारे लगाते रहना, सशस्त्र संघर्ष अराजकता और शान्ति की हत्या को प्रोत्साहन एवं आमंत्रण हैं |

  इस प्रकार जो चित्र द्दृष्टगोचर हा उसमें न तो केंद्रीय सत्ता के लुप्त हो जाने ले लक्षण हैं  और न केवल संयोगवश प्रभ्त्व का लोप हो जाने की दशा में, शान्ति के उदय की कोई संभावना ही है | रूस में कम्युनिस्ट राज्य ने गत पचास वर्षों में भी अपने लुप्त होने के कोई चिह्न प्रकट नहीं किये वरन वह और भी शक्तिशाली हो गया है, यह उसके सैद्धांतिक आधार का पूर्ण असत्यता का जीवंत प्रमाण है |

गुरुवार, 16 मई 2013

साम्प्रदायिकता के सात रूप




साम्प्रदायिकता कई रूपों में प्रकट होती है | भारतीय राष्ट्र की सत्य अभिव्यक्ति से ओत-प्रोत हिन्दू समाज की जीवन धरा के विरुद्ध व्यूह-रचना में लिप्त अहिंदू समाज साम्प्रदायिक है | हिन्दू समाज में भी साम्प्रदायिक वह है जो, जो मूलतः बहुआयामी हिन्दू प्रतिमा की अभिव्यंजना के बतौर अपने धार्मिक सम्प्रदायों के रूप में उत्पन्न हुए, परन्तु बाद में अपने अस्तित्व व प्रेरणा के स्रोत को भूलकर अपने को हिन्दू समाज व धर्म से भिन्न मानने लगे हैं और सीसी आधार पर पृथक एवं विशिष्ट राजनैतिक व आर्थिक विशेषाधिकारों की मांग करते हैं | इन मांगो की पाराप्ति हेतु स्वयं को हिन्दू समाज से भिन्न होने के उद्घोष के साथ तरह-तरह के आन्दोलनों का सहारा लेते हैं | नवबौद्ध व सिक्ख इसी श्रेणी में रखे जा सकते हैं |

  साम्प्रदायिकता का तृतीय स्वरुप 'द्रविड़ कड़गम' एवं 'द्रविड़ मुनेत्र कड़गम' हैं, जो नस्लीय विशिष्टता की तर्क विसंगत धारणा के आधार पर पृथकतावादी बने हैं और अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शेष समाज के विरुद्ध घृणा, हिंसा और शत्रुता फैलाते हैं | इसी प्रकार चतुर्थ श्रेणी में वे लोग हैं जो 'स्प्रृश्यता' और 'अस्पृश्यता' व 'ब्राह्मण' और 'अ-ब्राह्मण' के नाम पर विवाद उत्पन्न करते हैं तथा विशेषाधिकारों के लिए घृणा, शत्रुता तथा स्वार्थ को भड़काते हैं |

  भाषाई आधार वाली साम्प्रदायिकता पांचवी प्रकार की है, जिसमें पड़ोस में स्थित अन्य भाषा-भाषियों के विरुद्ध अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा, विरोध व घृणा की भावना फैलाई जाती है | 'भाषाई अल्पसंख्यक' शब्द इसी मनोवृत्ति  से उत्पन्न होता है | क्षेत्रीयता की संकुचित भावना और अन्य प्रांतीय लोगों के प्रति अस्वस्थ दृष्टिकोण अपनाना छठे प्रकार की साम्प्रदायिकता है | उत्तर-दक्षिण, पंजाबी-गैर पंजाबी, मराठी-कन्नड़, गुजराती-मराठी, और बंगाली-बिहारी-उड़िया इत्यादि भेदभाव इसी प्रकार का है |

  सातवें प्रकार की साम्प्रदायिकता चुनावी लाभ प्राप्त करने के लिए जाति, पंथ व भाषा के आधार पर भड़काई जाने वाली आपसी घृणा है | यह सबसे खतरनाक साम्प्रदायिकता है , जो सम्पूर्ण देश में व्याप्त है और जिसके लिए शासक दल सहित अनेक राजनैतिक पक्ष दोषी हैं | जब तक यह राजनैतिक साम्प्रदायिकता विद्यमान है, यह नितांत असंभव है कि किसी अन्य प्रकार की साम्प्रदायिकता का उन्मूलन किया जा सके | यदि केवल इस सातवें प्रकार की राजनैतिक साम्प्रदायिकता से परहेज किया जा सके. तो इसके अन्य स्वरूपों से जूझना कम कठिन हो जाएगा | (इन प्रमुख साम्प्रदायिकताओं के अतिरिक्त इसमें अन्य छोटे-मोटे प्रकार भी हो सकते हैं | )

बुधवार, 15 मई 2013

साम्यवाद




इस विचार के लोगों का मानना है कि उनके चारों ओर ऐसे भी व्यक्ति है जो बुद्धिमत्ता या अन्य कारणों से धन का उत्पादन करते हैं और ऐश करते हैं | अधिकाँश लोग ऐसा नहीं कर पाते | इसलिए वे सोचते हैं कि किसी की भी उत्पादन शक्ति ना रहे और बुद्धि ना रहे | अपनी उन्नति दुसरे के बराबर हो, यह नहीं सोचते, परन्तु दुसरे की अवनति अपने बराबर अवश्य करना चाहते हैं | 'लेवलिंग डाउन' है 'लेवलिंग अप' नहीं | इसी का परिवर्तित रूप दूसरा भी है | किसी भी मनुष्य के लिए किसी भी प्रकार की निजी संपत्ति ना रहे | यहाँ तक कि समाज की संरचना भी इस सब संपत्ति की समानता के लिए बदल दी जाए |

   कुटुंब के कारण संपत्ति का विचार पैदा होता है, अतः विवाह ही नहीं करना चाहिए | इसका यह अर्थ नहीं कि बर्ह्म्चार्य का पालन किया जाए, बल्कि परिवार की जिम्मेदारी और संस्कार रूप बंधन को तोड़कर पशु के सामान स्वैर जीवन व्यतीत किया जाए | कुछ को इसका आकर्षण भी है , क्योकि मनुष्य के अन्दर पशुता का जागरण बड़ा सुखदाई है | वह ऊंचे विचारों की अपेक्षा निम्न विचारों से जल्दी प्रभावित होता है, पर यह असंभव चित्र कैसे उत्पन्न होगा?

  उसके लिए एक अंतरिम केंद्रीभूत सत्ता के निर्माण की कल्पना करनी पड़ती है , जो सबको नीचे दबाकर एक कर दे | फिर भी संग्रह की प्रवृत्ति नष्ट नहीं होती | हाँ, कर्त्तव्यपरांगमुखता से अनवस्था अवश्य उत्पन्न होती है | उसको टालने के लिए विवश करके काम कराने वाली केंद्रीय सत्ता की आवश्यकता होती है , जिसका मनुष्य गुलाम बन जाता है | कहा जाता है कि यह सत्ता आगे चल कर नष्ट हो जायेगी | इसी को वे 'राजसत्ता का क्रमशः नष्ट होना' (Withering away of the state) कहते हैं, किन्तु यह सत्ता शून्य जीवन कैसे उत्पन्न होगा? वस्तुतः साम्यता का अनुभव तो वह कर सकता है, जिसने हिन्दू संस्कृति का तत्वज्ञान जाना है | साम्य का प्रयोग अपने यहाँ स्ताहं-स्थान पर हुआ है- 'एषाम साम्य मनः, समत्व योग...'आदि | यह साम्य सत्य के आधार ही पर प्रकट हुआ है | किन्तु अपनी बात समझ में ना आने और बाहर की बात जल्दी समझ में आने का कारण यह है कि मनुष्य को यद्यपि बुद्धिजीवी प्राणी कहा जाता है , फिर भी उसका ध्यान विषय-तृप्ति की ओर आकर्षित हो जाता है | सर्वसाधारण तो क्या , बड़े-बड़े व्यक्ति भी उदार-भरण और विषय-भोग की ओर आकर्षित होते हैं | ये दोनों आकर्षण इस तत्त्व प्राणाली में हैं | लोग समझते हैं कि उसमें खाना भी मिलेगा और स्वैराचार भी | कदाचित् लोग इसलिए भी उसके पीछे जाते हैं कि उसमें विषय लालसा तथा नूतनता का भाव है |

  इस विचार प्रणाली की एक और समस्या है | इसने आरती वैषम्य के अनुसार मनुष्य मात्र को दो वर्गों में बाँट दिया है | एक सम्पत्तिशाली (Haves) और दूसरा समत्तिहीन (Have nots)| इनके परस्पर संघर्ष में सम्पत्तिशाली को नष्ट कर सम्पत्तिहीन को जीवित रखना ही उनका ध्येय है | इस सुखपूर्ण चित्र को पूर्ण करने के लिए एक मध्यवर्ती सत्ता की कल्पना की गयी है, जो संपत्ति को सबमें सामान रूप से बाँट देगी | इसके पश्चात कहा जाता है कि वह सत्ता नष्ट हो जायेगी |

  मेरे एक मित्र जिन्होंने इस मत का अभ्यास किया था और जो इसका सर्वत्र प्रचार किया करते थे, ने मुझे यह कल्पना समझाने की भरसक चेष्टा की | वाद-विवाद में जब इस निर्णय पर पहुंचे कि राज्यसत्ता शून्य समाज होगा और संघर्ष का कोई कारण ना रहेगा, क्योंकि सबको भोजन मिलेगा और किसी का किसी से कोई झगडा नहीं होगा; तब मैंने कहा कि मनुष्य का स्वभाव सर्वसाधारण जीवमात्र से अधिक चतुर है और अपना पेट भर जाने के बाद वह दुसरे की रोटी नहीं लेगा, ऐसी बात नहीं है | गाय-बैल के भूसे पर बैठने वाले कुत्ते की भांति, जो न तो स्वयं खाट है ना दूसरों को खाने देता है , प्रायः मनुष्य भी दूसरों के उपभोग में हस्तक्षेप करता है | अतएव मैंने पूछा, संघर्ष ना होने का आधार का निर्णय किस प्रणाली से किया जाएगा? ऐसी कौन सी बात होगी , जिस से प्रेरित होकर मनुष्य संघर्ष नहीं करेगा? यह शिक्षा किस प्रकार की होगी? 'अन्धेनैव नीयमाना:यथान्धाः' की बात तो नहीं है ? उन्होंने कहा की आप विशवास रखें | मैंने कहा- ऐसा नहीं, मुझे यदि विशवास ही रखना होगा तो अपने बाप-दादा पर रखूँगा | भोली श्रद्धा रखनी है तो परकीयों पर क्यों रखीं जाए, अपनों पर हो | उन्होंने दो दिनों तक मुझे समझाया , पर इस बात का उत्तर नहीं दे सके | हारकर उन्होंने कहा कि मान लो ऐसा होगा | मैंने कहा- "कैसे मान लें, पहले समझाओ भी तो, उसका प्रमाण तो दो | हम तो तीर्थयात्रा के उस पंडे की भांति हैं कि यदि साथ में पिता है तो ठीक, अन्यथा श्राद्ध कराना पड़ेगा और दक्षिणा देनी होगी | बुद्धि और ह्रदय का समाधा होना आवश्यक अहि | अतः जिस पद्धति का सर्वत्र बोलबाला है और जिसकी ओर ओग आकर्षित होते हैं , मैं अभी तक उसे समझ नहीं पाया हूँ |

एक नीति कथा







कुछ लोग चाटुकारिताप्रिय होते हैं. यदि कोई उन पर स्तुति की वर्षा करता है तो वे उल्लासित होते हैं और फूल्कर कुप्पा हो जाते हैं तथा उनसे जो कुछ करवाना हो, वह सब कुछ करने को तैयार हो जाते हैं. लोग अनेक बातों का प्रतिकार कर सकते हैं, परन्तु खुशामद का नहीं. भयंकरतम विष पचाना अपेक्षाकृत आसान है किन्तु स्तुति और सम्मान पचाना सरल नहीं. एक कथा है; भगवान् शंकर सबके संरक्षण के लिए गरल पी गए और उस से अप्रभावित रहे. पर वही शंकर भस्मासुर की स्तुति के शिकार बने और स्वयं के लिए आपत्तियों को बुला लाये. स्तुति मनुष्य को फूले हुए फुटबॉल की तरह फुला देती है, जिसको की सदैव एक ओर से दूसरी ओर के लिए ठोकर मारी जाती है. ऐसे में कोई भी आकर अतिशयोक्तिपूर्ण शब्दों में उसकी प्रशंसा कर अपनी स्वार्थसिद्धि कर सकता है. और, तब कहीं यह व्यक्ति भ्रममुक्त हो पाता है.

    इस पाठ को सिखलाने वाली एक पुरानी कथा है. एक बार एक कौआ अपनी चोंच में मांस का टुकडा लिए एक पेड़ पर बैठा था. कौए को देखकर एक सियार उस पेड़ के नीचे आकर बैठ गया, और कौए की ओर देखकर स्तुति करने लगा,"क्या सुन्दर रंग तुमने पाया है मेरे मित्र. यह वही श्याम रंग है जो श्री कृष्ण का था. और पिछली बार मैंने तुम्हें गाते सुना, ओह गन्धर्वों ने भी तुमसे ईर्ष्या की होती. मैं पुन: तुम्हारा स्वर्गिक गान का सुनने का अवसर पाकर कितना भाग्यवान होता." कौआ उस स्तुति से फूल गया उर डोलने लगा. सोचा "चलो इस मित्र को संतुष्ट कर दें" और जैसे ही उसने अपनी चोंच खोली, मांस का टुकड़ा नीचे आ गिरा. सियार ने तत्परता से उसे झपट लिया और यह कहते हुए अपने रास्ते हो लिया-" अब मुझे तुम्हारे संगीत से कोई प्रेम नहीं है"

   आज हमारे देश के अनेक बड़े लोगों में खुशामद के सम्बन्ध में यह कमजोरी है. और, विश्व में ऐसे अनेक धूर्त लोग हैं जो स्तुति के इस सूक्ष्म साधन का उपयोग कर लेते हैं. यदि वे कहते हैं की " आप कितने शांतिप्रिय, अहिंसावादी और उदार हैं! आप अतिश्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिनाम व्यक्तियों में से एक हैं." अआदी-आदि तो इस स्तुति से हमारे नेताओं के पैर ज़मीं से ऊपर उठ जाते हैं और वे प्रशंसक जो कुछ चाहते हैं, उसे देना स्वीकार कर लेते हैं, चाहे वह नाहर का पानी हो, धन हो, अन्य सामग्री हो अथवा हमारे सैनिक हों जो कि संसार भर में होने वाले संघर्षों में युद्ध-बलि के रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं.