मंगलवार, 2 जुलाई 2013

समाज की संरचना

प्रत्येक मनुष्य एक ही प्रकार से उपासना नहीं कर सकता. इसलिए अपने यहाँ उपासना के भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय बहुत प्राचीन काल से चले आ रहे हैं. पेड़, पत्थर, भूत, पिशाच आदि की भी पूजा करो. इस विचार से पूजा के कई अमर्याद क्षेत्र उपलब्ध करा दिए गए. अपने से श्रेष्ठ, पवित्र, उच्च ऐसी कोई शक्ति है और उसकी पूजा करना चाहिए. इस भावना से अंततोगत्वा उच्चतम स्थान पर पहुँच जायेंगे, यह विचार इस व्यवस्था में निहित था. गीता में भगवान ने कहा है कि हर एक प्रकार से पूजा करने वाला अंततः मेरी ही पूजा करता है.  ऐसे प्रत्येक को अंतिम सुख तक पहुंचाने का बीड़ा स्वयं भगवान ने उठाया है. उपासना का जो मार्ग अपनी प्रकृति को, रूचि को और जीवन पद्धति को जाचे उसको वह स्वीकार करे- यही अपने यहाँ माना गया है. इसलिए अपने यहाँ झगडा नहीं हुआ.
अनुशासन के बारे में बोलते हुए मैंने कहां था कि अपने यहाँ  व्यक्ति की सम्पूर्ण स्वतंत्रता है और व्यक्ति के अहंकार को समष्टि के अहंकार में पूर्णतः विलीन कर देना है. इसी सामंजस्य से अटूट अनुशासन निर्माण होता है. धर्म क्षेत्र में भी यही धारणा दिखाई देती है.  उपासना का स्वातंत्र्य होते हुए भी सारे मार्ग उसी एकरूप अंतिम सत्य तक पहुँचने वाले हैं, ऐसा हम मानते हैं.  जैसे आकाश से भूमि पर गिरनेवाला पानी आखिर महासागर तक पहुँच जाता है. शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन, मीमांसक, नैयायिक सभी ने एक ही तत्त्व को ‘त्रैलोक्य नाथो हरिः’ करके विभिन्न शब्दों में गाया है-
यं शिवा समउपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटव: कर्तेति नैयायिका.
अर्हन्नित्यथ जैनशास्नारता: कर्मेति मीमांसका:
सोऽयं विदधातु वान्छित्फलम त्रैलोक्यनाथो हरि:
  ऐसा विविधतापूर्ण परन्तु समन्वित जीवन यहाँ था, श्रेष्ठतम सत्य की अनुभूति के चिरंजीव और पवित्र अधिष्ठान पर समन्वय उत्पन्न करना और अनेकविध गुणों  से परिपूर्ण होना, यह अपने राष्ट्रजीवन की एक अनोखी विशेषता है. इन गुणों में से अधिकाँश की अभिव्यक्ति अपने राष्ट्र में फिर से हो ऐसा यत्न करने की आवश्यकता है. यहाँ स्वामी विवेकानंद का एक उदगार का स्मरण आता है. उन्होंने कहा था की ‘मैं अपने समाज का जो आगामी चित्र देखता हूँ वह ‘ए मुस्लिम बॉडी विथ हिंदू सोल’... ऐसा है.’ अनेक लोगों को यह बात बड़ी विचित्र सी लगी. लेकिन उसका अर्थ यह है की मुसलमान समाज एक जीवन में जो एक सद्गुण है की वे अपने सब भेद भुलाकर अपने धर्म के नाम पर, हम उसको सद्गुण कहें या ना कहिएं, कंधे से कंधा मिलाकर सूत्रबद्ध खड़े हो जाते हैं. ऐसा स्वाभिमान लेकर सूत्रबद्ध होकर एकरूप बना हुआ समाज का विशाल शरीर, परन्तु अपने आध्यात्म्पूर्ण राष्ट्रजीवन की परिपूर्ण जागृति अंतःकरण में रखने वाला यह हिंदू समाज बनेगा ऐसा स्वामी जी ने कहा था. मैंने एक बार किसी से कहा था की नया मकान बनाने के लिए कई बार पुराना मकान तोडना पड़ता है. आज विकृति बनी हुई है जो समाज रचना है, उसको यहाँ से वहाँ तोड़ मरोड़ कर सारा ढेर लगा देंगे.उसमें से आगे चल कर जो विशुद्ध रूप से बनेगा सो बनेगा, आज तो सबका एकरस समूह बनाकर अपने विशुद्ध राष्ट्रीयत्व का सम्पूर्ण हृदय में रखकर, राष्ट्र के नित्य चैतन्यमय व सूत्रबद्ध सामर्थ्य की आकांक्षा अंतःकरण में जागृत रखने वाला समाज खड़ा करना है.

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