शनिवार, 18 मई 2013

समय की चुनौती




कोई भी व्यवस्था जो स्वाभाविक असमानता को ऊपरी समानता के आधार पर पूर्णरूपेण दूर करने का प्रयत्न करती है, निश्चय ही असफल होगी | पाश्चात्य देशों में इतनी प्रगति की अवस्था होते हुए भी जनतंत्र अंत में कुछ ऐसे ही लोगों का शासन है जो राजनीति की कला के पूर्ण ज्ञाता तथा सामान्यजन को अपने पक्ष में लाने का सामर्थ्य रखते हैं | जनतंत्र की वह कल्पना कि राज्य 'जनता द्वारा' और 'जनता का' है जिसका अर्थ होता है कि राजनीतिक प्रबंध में सभी सामान भागी हैं, व्यवहार में बहत बड़ी सीमा तक, एक कल्पित कथा मात्र है |

 कम्युनिज्म भी एकता की अपनी घोषित कल्पनाओं में से किसी एक को भी साकार करने में पूर्ण असफल हो चुका है | उसने कल्पना की थी कि श्रमिक का एकाधिपत्य स्थापित हो जाने पर सभी के भोजन तथा जीवन की अन्य आवश्यकताएं पूरी हो जायेंगी | उस स्थिति में परस्पर संघर्ष के लिए कोई स्थान न रहेगा और इसलिए केंद्रीय प्रभुत्व की आवश्यकता भी नहीं रहेगी | इस  प्रकार राज्य लुप्त हो जाएगा और एक शासनरहित समाज का उदय होगा | कम्युनिज्म के अनुसार यही एकता की उच्चतम अवस्था है, जिसकी कि मनुष्य कल्पना कर सकता है |

  किन्तु कम्युनिज्म, जैसा कि यह भौतिकवाद पर आधारित है, स्पष्ट नहीं कह सकता कि वह आदर्श अवस्था कैसे अस्तित्व में आ सकती है? यदि मनुष्य केवल एक पशु है अर्थात् एक भौतिक जीव मात्र, तो वह एक-दुसरे का भक्षण केवल इसीलिए नहीं करता कि उसे जो कोई भी अधिष्ठित सत्ता है उसका भय है | किन्तु जब वह शक्ति अथवा प्रभुत्व नहीं रहेगा तो बिना कलह के वे क्यों रहेंगे? पशु के रूप में मनुष्य मनोवेगों का शिकार है, और मनोवेगों को जब तुष्ट किया जाता है तो वे और भी अधिक तीव्र हो जाते हैं | इस प्रकार का असंतुष्ट मनुष्य दूसरों के साथ प्रेम एवं शांतिपूर्वक कैसे रहेगा? और इस बात का भी क्या भरोसा है कि अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने पर भी मनुष्य , जो कि पशुओं अपेक्षा अधिक चतुर है, न खाओ न खाने दो की नीति (Dog in the manager policy) का अनुसरण नहीं करेगा? इसलिए यदि हम मान भी लें कि समानता स्थापित हो गयी तो वह पुनः असमानता की ओर ले जायेगी | इस प्रकार एक अन्य खुनी क्रांति आवश्यक हो जायेगी | इसका अर्थ है कि हिंसात्मक विप्लव तथा कलह कम्युनिज्म के सिद्धांत की कोण शिलाएं हैं | सदैव क्रान्ति के नारे लगाते रहना, सशस्त्र संघर्ष अराजकता और शान्ति की हत्या को प्रोत्साहन एवं आमंत्रण हैं |

  इस प्रकार जो चित्र द्दृष्टगोचर हा उसमें न तो केंद्रीय सत्ता के लुप्त हो जाने ले लक्षण हैं  और न केवल संयोगवश प्रभ्त्व का लोप हो जाने की दशा में, शान्ति के उदय की कोई संभावना ही है | रूस में कम्युनिस्ट राज्य ने गत पचास वर्षों में भी अपने लुप्त होने के कोई चिह्न प्रकट नहीं किये वरन वह और भी शक्तिशाली हो गया है, यह उसके सैद्धांतिक आधार का पूर्ण असत्यता का जीवंत प्रमाण है |

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