शुक्रवार, 24 मई 2013

वनवासी बंधुओं पर विचार

वन्य प्रान्तों में निवास करने वाले बंधुओं से मिलने पर अनुभव होता है कि ये लोग अनेक गुणों से परिपूर्ण होते हैं, यथा साहस, बुद्धिमत्ता,परिश्रम, शीलता, सत्य-निष्ठा, निश्छल आत्मीयता तथा सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक | हमें कुछ श्रेष्ठतम सैनिक इसी समाज ने दिए हैं | संभवतः केवल महाराणा प्रताप ही ऐसे व्यक्ति थे जो इनसे घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित कर इन्हें शेष समाज की बराबरी पर ले आये थे | उन अंचलों के वनवासी भील राजपूतों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर स्वदेश व स्वधर्म की रक्षा शौर्य पूर्वक पीढ़ी दर पीढ़ी करते रहे |

आजकल हमारे लोग इन लोगों के बीच केवल उनका शोषण करने के लिए जाते हैं | कुछ लोग ‘गो मांस भक्षी’ कहकर उनका तिरस्कार करते हैं और उनमें घुलने मिलने अथवा उन्हें हिन्दू मानने से इनकार करते हैं | परन्तु क्या हमने उनकी सभी परिस्थितियों का सहान्य्भूति पूर्वक विचार किया है?क्या किसी ने उनके पास जाकर उन्हें गाय के प्रति श्रद्धा के बारे में बताया है? ऐसे में दोष उनका नहीं है; हमारा है | दूसरी बात, उनके पास खाद्य सामग्री का अभाव भी तो हो सकता है | फलतः आवश्यकता के कारण उन्हें गो-मांस खाना पड़ गया होगा-फैशन या स्वाद के कारण नहीं | ऐसे में भी दोष हमारा ही है |

यह शेष हिन्दू समाज का कार्य है कि वह उनके बीच जाए, उन्हें शिक्षित करे और उनके सांस्कृतिक स्तर तथा जीवन स्थितियों में उत्कर्ष लाकर अपनी भूल का प्रायश्चित करें | यह कहना एकदम गलत है कि उनकी उपेक्षा की जडें हमारी समाज-रचना में है | प्राचीन काल में जब पंचायत प्रणाली समाज का मूलाधार थी, तब उसमें वनवासी जातियों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था | इसका उल्लेख श्रीराम कालीन राजनीतिक प्रणाली के वर्णन में मिलता है |

गत अनेक शताब्दियों से इन भाई-बहनों के प्रति स्नेह व संपर्क का अभाव ही उनकी वर्तमान उपेक्षा व विकत परिस्थितियों का प्रमुख कारण है | शेष समाज शिक्षा से लाभान्वित होता रहा; किन्तु इन्हें उससे वंचित रखा गया | उपयुक्त तकनीकी व अन्य प्रशिक्षणों के अभाव में ये वर्ग अपनी उत्पादन क्षमता एवं समृद्धि में पिछड़ते गए | आज हमें यही शिक्षा देश के सुदूरवर्ती वनांचलों में उन बंधों तक पहुंचानी है. जिनके लिए धर्म अंध-विश्वासपूर्ण कर्मकांडों का समुच्चय मात्र बन कर रह गया है अथवा जिन्हें सुदूरतम पर्वतों में रहने के कारण धर्म को समझने और तदुनुरूप जीवन यापन करने का अवसर ही प्राप्त नहीं हुआ | इस कार्य में विकत कठिनाइयों, कष्टों और विपत्तियों का सामना करना होगा | ऐसा अनुभव भी हो सकता है कि यह कृतज्ञता शून्य कार्य है | परन्तु हमें त्वरित फल अथवा किसी चमत्कार की अपेक्षा
किये बिना कठोर यथार्थ का सामना करते हुए सच्चे कर्मयोगी की भांति अनंत धैर्य के साथ कर्म पथ पर अग्रसर होना होगा |

कुछ कार्यकर्ता सभी बुराईयों के लिए दूसरों को उत्तरदायी ठहराकर प्रसन्न हो जाते हैं | कुछ कार्यकर्ता राजनीतिक विकृतियों तथा कुछ ईसाई, मुस्लिम आदि दुसरे सम्प्रदायों की आक्रामक गतिविधियों पर दोषारोपण करते हैं |परन्तु हमारे कार्यकर्ता को अपने मस्तिष्क की ऐसी प्रवृत्तियों से मुक्त रखकर अपने धर्म एवं बंधुओं के लिए शुद्धभाव से कार्य करना चाहिए | जिन्हें सहायता की आवश्यकता है उन्हें सहयोग देना और विपत्तियों से मुक्त करने हेतु सतत प्रयास करना चाहिए || इस सेवा कार्य में व्यक्ति-व्यक्ति में कोई भेद नहीं करना चाहिये- वह चाहे ईसाई हो या मुसलमान अथवा किसी अन्य सम्प्रदाय का अनुयायी | दैनिक आपदा, कष्ट अथवा दुर्भाग्य कोई भेदभाव नहीं करते और इनसे सभी सामान रूप से प्रभावित होते हैं |मानवता के कष्ट निवारण के कार्य में सेवा करते समय कृपा अथवा दया भाव से नहीं, बल्कि सभी के हृदयों में विद्यमान परमात्मा के प्रति समर्पित भक्तिमय अर्चना-भाव से कार्य करना चाहिए | हमारे धर्म की सच्ची शिक्षा यह है कि प्राणिमात्र के माता-पिता, बंधू सखा और सर्वस्व रुपी नारायण की सेवा में हमें अपना सब कुछ समर्पित कर देना चाहिए | हमारे कार्य, हमारे शाश्वत सनातन धर्म के यश एवं गौरव की श्री वृद्धि में योगदान करने में सफल हों, यही हमारी कामना हो |

इन लोगों तक अपने सांस्कृतिक विचार पहुँचाना केवल बराबरी के स्तर से ही संभव है, ऊंचे मचान पर बैठ कर नहीं | सबसे पहले उनको इसकी अनुभूति कराई जाए कि वे हमारे बराबर के एवं हमारे अपने बांध हैं | हम उन्हें अपने सच्चे प्रेम व स्नेह की अनुभूति करायें, तभी वे हमारे आह्वान का प्रत्य्त्तर देंगे और उसे ग्रहण कर सकेंगे |

वास्तव में पूर्वकाल में उनके साथ सांस्कृतिक सम्बन्ध बनाए रखने की व्यवस्थाएं रहती थीं | प्रत्येक क्षेत्र के गोस्वामी वहां की जनजातियों में घुलने मिलने, उन्हें शिक्षित करने तथा उनका सांस्कृतिक स्तर ऊंचा करने के विशिष्ट उद्देश्य के लिए ही हुआ करते थे | असं में ये लोग चैतन्य देव के अनुयायी आचार्य शंकर देव के पंथ माने जाते हैं | एक बार मैं उन लोगों से मिला, तो उन लोगों ने कहा-“ हम ऐसे असभ्य लोगों से कैसे मिल सकते हैं?” तथापि कुछ विचार विमर्श के पश्चात वे उनके साथ बैठने और भोजन करने को तैयार हो गए | जब जनजातीय नेता वहाँ आये, तो वे ये सब देखकर आश्चर्यचकित हो गए | वो ये कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि ऐसा भी हो सकता है | मैंने उनसे कहा कि हम सब भाई-भाई हैं | फिर दो जाति-प्रमुखों को अपने अगल-बगल बैठाया तो वे भाव-विह्वल हो गए |
समस्या यह है कि हम स्वयं ही उनसे दूर रहते हैं और शिकायत करते रहते हैं कि वे खराब हैं या ऐसे-वैसे हैं | बहुत दिनों तक ये लोग सरकारी अधिकारियों से भी संपर्क नहीं करना चाहते थे | जानते हैं क्यों? नागाओं का एक वर्ग अपने बालों का जूडा बनाकर उन्हें माथे पर सींग के सामान बांधता है | वे इसे सुन्दर व सम्मानसूचक मानते हैं | एक सरकारी अधिकारी को इन लोगों की देखभाल के लिए असं में नियुक्त किया गया | अधिकारी के आने पर जाति के मुखिया उनसे मिलने आये, परन्तु वह अधिकारी एकदम कल्पना-शून्य था | उसने एक नेता का जूडा पकड़ा और उसे झकझोरते हुए पूछा-“इसे कटवा कर एक आधुनिक व सभ्य व्यक्ति बनो |” वे सब हक्के-बक्के रह गए | एक अधिकारी सहज बुद्धि एवं कल्पनाशीलता के साथ उनसे व्यवहार क्यों नहीं कर सकता था? इसके बाद उन लोगों ने सरकारी अधिकारियों से मिलने की इच्छा कभी नहीं की |

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