बुधवार, 15 मई 2013

साम्यवाद




इस विचार के लोगों का मानना है कि उनके चारों ओर ऐसे भी व्यक्ति है जो बुद्धिमत्ता या अन्य कारणों से धन का उत्पादन करते हैं और ऐश करते हैं | अधिकाँश लोग ऐसा नहीं कर पाते | इसलिए वे सोचते हैं कि किसी की भी उत्पादन शक्ति ना रहे और बुद्धि ना रहे | अपनी उन्नति दुसरे के बराबर हो, यह नहीं सोचते, परन्तु दुसरे की अवनति अपने बराबर अवश्य करना चाहते हैं | 'लेवलिंग डाउन' है 'लेवलिंग अप' नहीं | इसी का परिवर्तित रूप दूसरा भी है | किसी भी मनुष्य के लिए किसी भी प्रकार की निजी संपत्ति ना रहे | यहाँ तक कि समाज की संरचना भी इस सब संपत्ति की समानता के लिए बदल दी जाए |

   कुटुंब के कारण संपत्ति का विचार पैदा होता है, अतः विवाह ही नहीं करना चाहिए | इसका यह अर्थ नहीं कि बर्ह्म्चार्य का पालन किया जाए, बल्कि परिवार की जिम्मेदारी और संस्कार रूप बंधन को तोड़कर पशु के सामान स्वैर जीवन व्यतीत किया जाए | कुछ को इसका आकर्षण भी है , क्योकि मनुष्य के अन्दर पशुता का जागरण बड़ा सुखदाई है | वह ऊंचे विचारों की अपेक्षा निम्न विचारों से जल्दी प्रभावित होता है, पर यह असंभव चित्र कैसे उत्पन्न होगा?

  उसके लिए एक अंतरिम केंद्रीभूत सत्ता के निर्माण की कल्पना करनी पड़ती है , जो सबको नीचे दबाकर एक कर दे | फिर भी संग्रह की प्रवृत्ति नष्ट नहीं होती | हाँ, कर्त्तव्यपरांगमुखता से अनवस्था अवश्य उत्पन्न होती है | उसको टालने के लिए विवश करके काम कराने वाली केंद्रीय सत्ता की आवश्यकता होती है , जिसका मनुष्य गुलाम बन जाता है | कहा जाता है कि यह सत्ता आगे चल कर नष्ट हो जायेगी | इसी को वे 'राजसत्ता का क्रमशः नष्ट होना' (Withering away of the state) कहते हैं, किन्तु यह सत्ता शून्य जीवन कैसे उत्पन्न होगा? वस्तुतः साम्यता का अनुभव तो वह कर सकता है, जिसने हिन्दू संस्कृति का तत्वज्ञान जाना है | साम्य का प्रयोग अपने यहाँ स्ताहं-स्थान पर हुआ है- 'एषाम साम्य मनः, समत्व योग...'आदि | यह साम्य सत्य के आधार ही पर प्रकट हुआ है | किन्तु अपनी बात समझ में ना आने और बाहर की बात जल्दी समझ में आने का कारण यह है कि मनुष्य को यद्यपि बुद्धिजीवी प्राणी कहा जाता है , फिर भी उसका ध्यान विषय-तृप्ति की ओर आकर्षित हो जाता है | सर्वसाधारण तो क्या , बड़े-बड़े व्यक्ति भी उदार-भरण और विषय-भोग की ओर आकर्षित होते हैं | ये दोनों आकर्षण इस तत्त्व प्राणाली में हैं | लोग समझते हैं कि उसमें खाना भी मिलेगा और स्वैराचार भी | कदाचित् लोग इसलिए भी उसके पीछे जाते हैं कि उसमें विषय लालसा तथा नूतनता का भाव है |

  इस विचार प्रणाली की एक और समस्या है | इसने आरती वैषम्य के अनुसार मनुष्य मात्र को दो वर्गों में बाँट दिया है | एक सम्पत्तिशाली (Haves) और दूसरा समत्तिहीन (Have nots)| इनके परस्पर संघर्ष में सम्पत्तिशाली को नष्ट कर सम्पत्तिहीन को जीवित रखना ही उनका ध्येय है | इस सुखपूर्ण चित्र को पूर्ण करने के लिए एक मध्यवर्ती सत्ता की कल्पना की गयी है, जो संपत्ति को सबमें सामान रूप से बाँट देगी | इसके पश्चात कहा जाता है कि वह सत्ता नष्ट हो जायेगी |

  मेरे एक मित्र जिन्होंने इस मत का अभ्यास किया था और जो इसका सर्वत्र प्रचार किया करते थे, ने मुझे यह कल्पना समझाने की भरसक चेष्टा की | वाद-विवाद में जब इस निर्णय पर पहुंचे कि राज्यसत्ता शून्य समाज होगा और संघर्ष का कोई कारण ना रहेगा, क्योंकि सबको भोजन मिलेगा और किसी का किसी से कोई झगडा नहीं होगा; तब मैंने कहा कि मनुष्य का स्वभाव सर्वसाधारण जीवमात्र से अधिक चतुर है और अपना पेट भर जाने के बाद वह दुसरे की रोटी नहीं लेगा, ऐसी बात नहीं है | गाय-बैल के भूसे पर बैठने वाले कुत्ते की भांति, जो न तो स्वयं खाट है ना दूसरों को खाने देता है , प्रायः मनुष्य भी दूसरों के उपभोग में हस्तक्षेप करता है | अतएव मैंने पूछा, संघर्ष ना होने का आधार का निर्णय किस प्रणाली से किया जाएगा? ऐसी कौन सी बात होगी , जिस से प्रेरित होकर मनुष्य संघर्ष नहीं करेगा? यह शिक्षा किस प्रकार की होगी? 'अन्धेनैव नीयमाना:यथान्धाः' की बात तो नहीं है ? उन्होंने कहा की आप विशवास रखें | मैंने कहा- ऐसा नहीं, मुझे यदि विशवास ही रखना होगा तो अपने बाप-दादा पर रखूँगा | भोली श्रद्धा रखनी है तो परकीयों पर क्यों रखीं जाए, अपनों पर हो | उन्होंने दो दिनों तक मुझे समझाया , पर इस बात का उत्तर नहीं दे सके | हारकर उन्होंने कहा कि मान लो ऐसा होगा | मैंने कहा- "कैसे मान लें, पहले समझाओ भी तो, उसका प्रमाण तो दो | हम तो तीर्थयात्रा के उस पंडे की भांति हैं कि यदि साथ में पिता है तो ठीक, अन्यथा श्राद्ध कराना पड़ेगा और दक्षिणा देनी होगी | बुद्धि और ह्रदय का समाधा होना आवश्यक अहि | अतः जिस पद्धति का सर्वत्र बोलबाला है और जिसकी ओर ओग आकर्षित होते हैं , मैं अभी तक उसे समझ नहीं पाया हूँ |

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