सोमवार, 13 मई 2013

एकात्म भावना का जागरण







दुनिया में विविध प्रकार से भौतिक सुखवाद का प्रयोग किया गया|उसका अनुभव है कि उस प्रकार की रचना में नियंत्रण, पूर्व की अपेक्षा बढ़ गया है| लोग एक विशिष्ट सत्ता के अधिक से अधिक गुलाम बनते जाते हैं, क्यूंकि अन्न-वस्त्र आदि के भौतिक विचार में सचमुच का स्नेह पैदा करने की ताक़त नहीं है| अपना जीवन पंचभौतिक है और केवल संयोग से जीव का निर्माण हुआ-ऐसे दर्शन की परिणिति चावार्कपंथीय-'भस्मीभूतस्य देहस्य पुनारागमनम कुत:' या 'ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्'- विचारों में हुई तो कोई आश्चर्य नहीं| अपने सुख के लिए पडोसी का खून भी करने में केवल कानून या बदले के भय के सिवाय ऐसे दर्शन में क्या रुकावट है? भौतिक विचार से केवल स्वार्थ का ही विचार पैदा होता है और अनेक बार स्वार्थ के कारण परस्पर कलह, संघर्ष नियंत्रित होता है, परन्तु यह जीवन का नकारात्मक पहलू है| समाज घटकों में परस्पर आकर्षण क्यूँ चाहिए इसका संतोषजनक विचार इसमें नहीं है| परन्तु अपनी भारतीय संस्कृति की शिक्षा का विचार करें तो दिखाई देगा की सम्पूर्ण समाज एकरूप है, व्यक्ति एक ही चिरंतन तत्त्व का अंग है, सारा जीवन प्रवाह एक ही है| इस से आत्मीयता बढती है, एकात्म भावना का साक्षात्कार होता है| इस प्रकार की एकात्मता का परिपूर्ण साक्षात्कार अंत:करण में होने पर सर्वथा नियंत्रणशून्य, अंत:स्फूर्त, निर्मल ऐसा स्नेह-भाव अंत:करण में पैदा हो सकता है| इसके बिना यह कदापि संभव नहीं होगा| केवल राजनैतिक या आर्थिक व्यवहार के आधार पर एकात्म की यह अनुभूति असंभवनीय है| अपने जीवन में इस अनुभूति की नितांत आवश्यकता है| अत: स्वाभाविकत: समाज के अन्य घटकों के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार करते आना चाहिए| इसके लिए समाज में एकात्म भावना का जागरण करना पड़ेगा| वह जागरण अपनी  सांस्कृतिक परंपरा के आधार पर ही करना संभव है| यह सब हमें समझना होगा| आपको ये शब्द कठिन लगते होंगे, परन्तु आप थोडा समझ लेने का प्रयास करेंगे, तो वह सत्य आपको भी सहज प्रतीत हो सकेगा|

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